Verse: 9,6
मूल श्लोक :
यथाऽऽकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।9.6।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।9.6।।जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है? ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं -- ऐसा तुम मान लो।
।।9.6।। इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न कर रहे भ्रमित राजकुमार अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण एक सुन्दर एवं स्पष्ट दृष्टान्त देकर उसकी सहायता करते हैं। किसी ऐसी वस्तु की कल्पना कर सकना अत्यन्त कठिन है जो सर्वत्र विद्यमान है? जिसमें सबकी स्थिति है और फिर भी? वह स्वयं उन सब वस्तुओं के दोषों से लिप्त या बद्ध नहीं होती। सामान्य मनुष्य की बुद्धि इस ज्ञान की ऊँचाई तक सरलता से उड़ान नहीं भर सकती। शिष्य की ऐसी बुद्धि के लिये एक टेक या आश्रय के रूप में यहाँ एक अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक उदाहरण प्रस्तुत किया गया है? जिसकी सहायता से स्वयं को ऊँचा उठाकर वह अपने ही परिच्छेदों के परे दृष्टिपात करके अनन्त तत्त्व के विस्तार का दर्शन कर सके।स्थूल कभी सूक्ष्म को सीमित नहीं कर सकता। जैसे किसी कवि ने गाया है? पाषाण की दीवारें कारागृह नहीं बनातीं? क्योंकि एक बन्दी के शरीर को वहाँ बन्दी बना लेने पर भी उसके विचार अपने मित्र और बन्धुओं के पास पहुँचने में नित्य मुक्त हैं? स्वतन्त्र हैं। स्थूल पाषाण की दीवारें उसके सूक्ष्म विचारों की उड़ान पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकतीं। यदि एक बार इस सिद्धांत को भली भांति समझ लें? तो यह दृष्टान्त अत्यन्त भाव व्यंजक बनकर अपने गूढ़ अभिप्रायों को प्रदर्शित कर देता है।वायु का बहना? घूर्णन करना और भंवर के रूप में वेग से घूमना यह सब कुछ एक आकाश में होता है। आकाश उन सबको आश्रय देकर उन्हें सर्वत्र व्याप्त किये रहता है? किन्तु वे किसी भी प्रकार से आकाश को सीमित नहीं करते। सामान्य बौद्धिक क्षमता का साधक भी यदि इस दृष्टान्त का मनन करे? तो वह आत्मा और अनात्मा के बीच के वास्तविक संबंध को समझ सकता है? उसे परिभाषित कर सकता है। सत्य वस्तु मिथ्या का आधार है मिथ्या तादात्म्य से उत्पन्न असंख्य जीव नित्य और सत्य वस्तु में ही रहते हुए सुखदुख? कष्ट और पीड़ा का जीवन जीते हुए दिखाई देते हैं। परन्तु मिथ्या वस्तु कभी सत्य को सीमित या दोषलिप्त नहीं कर सकती। वायु के विचरण से आकाश में कोई गति नहीं आती आकाश वायु के सब गुण धर्मों से मुक्त रहता है। सर्वव्यापक आकाश की तुलना में? जिसमें कि असंख्य ग्रह नक्षत्र? तारामण्डल अमाप गति से घूम रहे हैं? यह वायुमण्डल और उसके विकार तो पृथ्वी की सतह से कुछ मील की ऊँचाई तक ही होते हैं। अनन्त सत्य की व्यापक विशालता में? अविद्याजनित मिथ्या जगत् के परिवर्तन की रंगभूमि मात्र एक नगण्य क्षेत्र है৷৷. और वहाँ भी सत्य और मिथ्या के बीच संबंध वही है? जो चंचल वायु और अनन्त आकाश में है।यह श्लोक केवल शब्दों के द्वारा सत्य का वर्णन करने के लिए नहीं है। व्याख्याकारों का वर्णन कितना ही सत्य क्यों न हो प्रत्येक जिज्ञासु साधक को इनके अर्थ पर स्वयं चिन्तनमनन करना होगा।तब पूर्वाध्याय में आपके बताये हुए पुनर्जन्म के सिद्धांत और ब्रह्माजी के दिन और रात में होने वाली सृष्टि और प्रलय की कथा की स्थिति क्या होगी इस पर कहते हैं --
English Translation By Swami Sivananda
9.6 As the mighty wind, moving everywhere, rests always in the ether, even so, know thou that all beings rest in Me.