Verse: 9,28
मूल श्लोक :
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।।9.28।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।9.28।।इस प्रकार मेरे अर्पण करनेसे जिनसे कर्मबन्धन होता है? ऐसे शुभ (विहित) और अशुभ,(निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे मुक्त हुआ तू मेरेको प्राप्त हो जायगा।
।।9.28।। यद्यपि आध्यात्मिक लक्ष्य एक ही होता हैं किन्तु उसकी प्राप्ति के साधनमार्ग अनेक हैं इन मार्गों का सतही अध्ययन करने पर वे परस्पर सर्वथा विपरीत दिखाई पड़ते हैं? तथापि उन सबका वैज्ञानिक आधार एक ही है? जो उन सबकी उपयोगिता एवं औचित्य को न्यायसंगत प्रमाणित करता है। गीता में अनेक स्थलों पर इस मूलभूत आधार को स्पष्टत दर्शाया गया है? तो किन्हीं अन्य स्थानों पर केवल उनका संकेत किया गया हैं फिर भी गीता के सावधान और सजग विद्यार्थी उसे पहचान सकते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में इस पर विचार किया गया हैं कि किस प्रकार अर्पण की भावना से जीवन जीते हुए? मनुष्य परम पुरुषार्थ को प्राप्त कर सकता हैं जो कि निदिध्यासन और यज्ञ की भावना का निश्चित फल हैं।यह सर्वविदित तथ्य हैं कि जो कर्म का कर्ता होता हैं? वही कर्मफल का भोक्ता भी होता है। अत यदि हम कर्तृत्वाभिमान से कर्म करें? तो फलोपभोग के लिए भी हमें बाध्य होना पडेगा। इसलिए वेदान्त का सिद्धांत है कि निरहंकार भाव से कर्म किये जाने पर उनसे शुभ या अशुभ दोनों ही प्रकार की वासनाएं उत्पन्न नहीं होती।भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं? तुम शुभअशुभ रूप कर्म के बन्धनांे से मुक्त हो जाओगे। कारण यह है कि अहंकार के अभाव में साधक के किये नये कर्मो से वसानाओं में वृद्धि नहीं होती और साथहीसाथ पूर्व संचित वासनाओं का शनैशनै क्षय हो जाता है। संक्षेप में? उस साधक का चित्त अधिकाधिक शुद्ध होता जाता है शास्त्रीय भाषा में इसे चित्तशुद्धि कहते हैं।मन के शुद्ध होने पर उसकी एकाग्रता की शक्ति में वृद्धि हो जाती हैं।विकास की अगली सीढ़ी यह हैं कि इस चित्तशुद्धि के फलस्वरूप साधक की आत्मानात्मविवेक की सार्मथ्य में अभिवृद्धि होती है। फिर वह संन्यास और योग के जीवन का आचरण करता है इन दो शब्दों का विस्तृत विवेचन पूर्व में किया जा चुका है? जिन्हें गीता में वर्णित अर्थ की दृष्टि से समझना चाहिए। संन्यास का अर्थ भौतिक जगत् का त्याग नहीं? वरन् गीता की भाषा में? संन्यास का अर्थ है (क) अहंकार से प्रेरित सब कर्मों का त्याग? और (ख) कर्मफल के साथ आसक्ति का त्याग। जो पुरुष परिश्रम और उत्साह के साथ अपनी भक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में अर्पण का जीवन जीता है? उसके लिए यह दोनों त्याग स्वाभाविक हो जाते हैं। अन्त में वह समस्त फलों को ईश्वर को अर्पण कर देता है।इस प्रकार? संन्यास का जीवन जीते हुए जिस साधक ने विवेक के द्वारा पूर्ण चित्तशुद्धि प्राप्त कर ली हैं उसे आत्मानुसंधानरूप योग सरल हो जाता है इसका कारण यह है कि वह अपने दैनिक कार्यकलापों में भी अनन्त आत्मस्वरूप का स्मरण बनाये रखता है।स्वभावत ऐसा साधन सम्पन्न योग्य अधिकारी पाता है कि उसकी अज्ञान दशा का मिथ्या उपाधियों के साथ तादात्म्य और तज्जिनित परिच्छिन्नता एवं मृत्यु के दुख सर्वथा समाप्त हो गये हैं। स्वस्वरूपानुभूति उसके लिए सहज सिद्ध हो जाती हैं। संन्यास और योग से युक्त हुए तुम मुक्त होकर मुझे प्राप्त हो जाओगे।जिस आत्मस्वरूप की प्राप्ति साधक को होगी? उस आत्मा का स्वरूप क्या है उसे अगले श्लोक में बताते हैं --
English Translation By Swami Sivananda
9.28 Thus shalt thou be freed from the bonds of actions yielding good and evil fruits; with the mind steadfast in the Yoga of renunciation, and liberated, thou shalt come unto Me.