Verse: 9,27
मूल श्लोक :
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।9.27।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।9.27।।हे कुन्तीपुत्र तू जो कुछ करता है? जो कुछ खाता है? जो कुछ यज्ञ करता है? जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है? वह सब मेरे अर्पण कर दे।
।।9.27।। जीवन में सब प्रकार के कर्म करते हुए हम ईश्वरापर्ण की भावना से रह सकते हैं। सम्पूर्ण गीता में असंख्य बार इस पर बल दिया गया है कि केवल शारीरिक कर्म की अपेक्षा ईश्वरार्पण की भावना सर्वाधिक महत्व की है और यह एक ऐसा तथ्य हैं ? जिसका प्राय साधकांे को विस्मरण हो जाता है।शरीर? मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले विषय ग्रहण और उनके प्रति हमारी प्रतिक्रिया रूप जितने भी कर्म हैं? उन सबको भक्तिपूर्वक मुझे अर्पण करे। यह मात्र मानने की बात नहीं हैं और न ही कोई अतिश्योक्ति हैं यह भी नहीं कि इसका पालन करना मनुष्य के लिए किसी प्रकार से बहुत कठिन हो। एक ही आत्मा ईश्वर? गुरु और भक्त में और सर्वत्र रम रहा है हम अपने व्यावहारिक जीवन में असंख्य नाम और रूपों के साथ व्यवहार करते हैं। हम जानते है कि इन सबको धारण करने के लिए आत्मसत्ता की आवश्यकता है। यदि हम अपने समस्त व्यवहार में इस आत्मतत्व का स्मरण रख सकें तो वह जगत् के अधिष्ठान का ही स्मरण होगा। यदि किसी वस्त्र की दुकान्ा में विभिन्न रूप? रंग? बुनावट और कीमतों के सूती वस्त्र हों तो दुकानदार को सलाह दी जाती हैं कि उसको सदा इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि वह सूती कपड़ों का व्यापार कर रहा हैं। किसी भी समझदार व्यापारी को यह करना कठिन नहीं हो सकता। वास्तव में देखा जाय तो इस प्रकार का स्मरण रखना उसके लिए अधिक सुरक्षित और लाभदायक है अन्यथा वह कहीं किसी कपडे़ का मूल्य ऊनी वस्त्र के हिसाब से अत्यधिक बता देगा अथवा अपने माल को टाट के बोरे जैसे सस्ते दामों में बेच देगा। यदि किसी स्वर्णकार को यह स्मरण रखने की सलाह दी जाय कि वह सोने पर कार्य कर रहा हैं? तो वह सलाह उसके लाभ के लिए ही हैं।जैसे आभूषणों में स्वर्ण और कपडे में सूत हैं वैसे ही विश्व के सभी नाम और रूपों में आत्मा ही मूल तत्व हैं। जो भक्त अपने जीवन के समस्त व्यवहार में इस दिव्य तत्त्व का स्मरण रख सकता हैं वही पुरुष जीवन को वह आदर और सम्मान दे सकता हैं? जिसके योग्य जीवन हैं। यह नियम है कि जीवन को जो तुम दोगे वही तुम जीवन से पाओगे। तुम हँसोगे तो जीवन हँसेगा और तुम चिढोगे तो जीवन भी चिढेगा उसके पास आत्मज्ञान से उत्पन्न आदर और सम्मान के साथ जाओगे? तो जीवन में तुम्हें भी आदर और सम्मान प्राप्त होगा।समर्पण की भावना से समस्त कर्मों को करने पर न केवल परमात्मा के प्रति हमारा प्रेम बढ़ता है? बल्कि आदर्श प्रयोजन और दिव्य लक्ष्य के कारण हमारा जीवन भी पवित्र बन जाता हैं। गीता में अनन्य भाव और सतत आत्मानुसंधान पर विशेष बल दिया गया है इस श्लोक में हम देख सकते हैं कि एक ऐसे उपाय का वर्णन किया गया है जिसके पालन से अनजाने ही साधक को ईश्वर का अखण्ड स्मरण बना रहेगा। इसके लिए कहीं किसी निर्जन सघन वन में या गुप्त गुफाओं में जाने की आवश्यकता नहीं है इसका पालन तो हम अपने नित्य के कार्य क्षेत्र में ही कर सकते हैं।इस प्रकार समर्पण की भावना का जीवन जीने से क्या लाभ होगा? उसे अब बताते हैं।
English Translation By Swami Sivananda
9.27 Whatever thou doest, whatever thou eatest, whatever thou offerest in sacrifice, whatever thou givest, whatever thou practisest as austerity, O Arjuna, do it as an offering unto Me.