Verse: 9,26
मूल श्लोक :
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।9.26।।जो भक्त पत्र? पुष्प? फल? जल आदि (यथासाध्य प्राप्त वस्तु) को भक्तिपूर्वक मेरे अर्पण करता है? उस मेरेमें तल्लीन हुए अन्तःकरणवाले भक्तके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए उपहार(भेंट) को मैं खा लेता हूँ।
।।9.26।। विश्व में कोई ऐसा धर्म नहीं है? जो भक्तों द्वारा ईश्वर को उपहार देने को मान्यता और प्रोत्साहन न देता हो। आधुनिक शिक्षित पुरुष को वास्तव में आश्चर्य होता है कि आखिर अनन्त परमात्मा को अपने दीपक के लिए तेल या एक मोमबत्ती या रहने के लिए मन्दिर या मस्जिद के रूप में एक घर जैसी क्षुद्र वस्तुओं की आवश्यकता क्यों होती है विपरीत धारणाओं के विष से विषाक्त हुई शुष्क व आनन्दहीन बुद्धि के लोग निर्लज्जतापूर्वक इसका भी आग्रह करने लगे हैं कि ईश्वर के इन घरों को अस्पताल? विद्यालय? मानसिक चिकित्सालय और प्रसूति गृहों में परिवर्तित कर देना चाहिए।परन्तु मेरा विश्वास है कि मैं ऐसे समाज को सम्बोधित कर रहा हूँ? जो कमसेकम अभी तो नैतिक पतन के अधोबिन्दु तक नहीं पहुँचा है। जिस समाज में अभी भी भावनापूर्ण स्वस्थ हृदय के विवेकशील लोग रहते हैं? वहाँ निश्चय ही मन्दिरों और पूजा की आवश्यकता है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि इन मन्दिरों में उनकी कलाकौशल पूर्ण रचना? कर्मकाण्ड का आडम्बर या स्वर्णाभूषणों की चमक और धन का प्रदर्शन उनकी सफलता के मूल कारण नहीं हैं। यहाँ तक कि प्रतिदिन वहाँ आने वाले दर्शनार्थियों की संख्या पर भी उनकी सफलता निर्भर नहीं करती।इस श्लोक की प्रत्यक्ष भाषा और शैली ही यह स्पष्ट करती है कि विश्वपति भगवान् को इन भौतिक वस्तुओं का कोई मूल्य और महत्व नहीं है। वे अपने भक्त का वह प्रेम और भक्ति स्वीकार करते हैं जिससे प्रेरित होकर वह अल्प उपहार भगवान् को अर्पण करता है फिर अर्पित की हुई वस्तु चाहे पत्र? पुष्प? फल? या स्वर्ण मन्दिर हो? उसका महत्त्व नहीं भगवान् कहते हैं? शुद्धचित्त के उस भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पित वह उपहार मैं स्वीकार करता हूँ।इस श्लोक में विशेष रूप से चुनकर कुछ शब्दों का प्रयोग किया गया है जो त्याग और अर्पण के उस सिद्धांत को स्पष्ट करता है? जिस पर सभी धर्मों का आग्रह होता है। इसमें सन्देह नहीं है कि परमात्मा को अपना पूर्णत्व पूर्ण करने के लिए अथवा अनन्त वैभव को बनाये रखने के लिए भक्तों के उपहारों की आवश्यकता नहीं होती। भक्तगण अपने इष्ट देवता को कुछनकुछ अर्पण करना चाहते हैं? जो वास्तव में भगवान् के द्वारा निर्मित जगत् रूप उपवन की ही एक वस्तु होती है? जिसका भक्तजन उपयोग कर रहे थे। एक सार्वजनिक उपवन में भी कोई प्रेमी वहीं से फूल तोड़कर अपनी प्रेमिका को भेंट देता है। इसी प्रकार? भक्त भी भगवान् के ही उपवन से वस्तु चुराकर उन्हें ही पुन अर्पित करता है। विचार करने से ज्ञात होता है कि वास्तव में? भगवान् को कुछ भेंट देने का हमारा अभिमान कितना वृथा और खोखला है।फिर भी? ईश्वर की सब प्रकार की पूजाओं में उन्हें कुछ अर्पण करने का महत्त्वपूर्ण विधान है? जिसके पालन पर विशेष बल दिया जाता है। पत्रपुष्पादि अर्पण करते समय यदि भक्त यह समझता है कि वह उन वस्तुओं को ही समर्पित कर रहा है? तो वह इस विधान का ही दुरुपयोग कर रहा है। वह अर्पण के सिद्धांत को नहीं जानता है। यहाँ पुष्प आदि का प्रयोजन एक चम्मच के समान है। भोजन के समय हम चम्मच का उपयोग किसी खाद्य पदार्थ को मुँह तक ले जाने में करते हैं परन्तु भोजनोपरान्त चम्मच थाली में ही रखा रहता है। बगीचे में या मन्दिर में फूलफल आदि रहते ही हैं परन्तु जब एक भक्त उन्हें तोड़कर भगवान् को अर्पण करता है तब वे उसके प्रेम और समर्पण को व्यक्त करने के माध्यम बन जाते हैं।यही बात भगवान यहाँ स्पष्ट करते हैं कि? शुद्ध बुद्धि के भक्त द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पित वस्तु को मैं स्वीकार करता हूँ।इसलिए भगवान को कुछ अर्पण करने की क्रिया प्रभावपूर्ण होने के लिए दो बातों की आवश्यकता है (क) वह उपहार भक्तिपूर्वक अर्पण किया गया हो तथा (ख) वह शुद्ध बुद्धि के भक्त द्वारा अर्पण किया गया हो। इन दोनों बातों के बिना अर्पण केवल आर्थिक अपव्यय है और अन्धश्रद्धा तथा मिथ्याविश्वास है। यदि उसका उचित अनुसरण किया जाय तो आत्मविकास के आध्यात्मिक मार्ग के लिए उपयुक्त वाहन बन जाता है।इसलिए --
English Translation By Swami Sivananda
9.26 Whoever offers Me with devotion a leaf, a flower, a fruit or a little water that, so offered devotedly by the pure-minded, I accept.