Verse: 9,15
मूल श्लोक :
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।9.15।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।9.15।।दूसरे साधक ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे (अभेदभावसे) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे कई साधक अपनेको पृथक् मानकर चारों तरफ मुखवाले मेरे विराट्रूपकी अर्थात् संसारको मेरा विराट्रूप मानकर (सेव्यसेवकभावसे) मेरी अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं।
।।9.15।। ज्ञानयज्ञ में कोई कर्मकाण्ड नहीं होता। इस यज्ञ में यजमान साधक का यह सतत प्रयत्न होता है कि दृश्यमान विविध नामरूपों में एकमेव चैतन्य स्वरूप आत्मा की अभिव्यक्ति और चेतनता को वह देखे और अनुभव करे। यह साधना वे साधक ही कर सकते हैं? जिन्होंने वेदान्त के इस प्रतिपादन को समझा है कि अव्यय आत्मा सर्वत्र व्याप्त है और अपने सत्स्वरूप में इस दृश्यमान विविधता तथा उनकी परस्पर वैचित्र्यपूर्ण क्रियायों को धारण किये हुये है।विभिन्न व्यावसायिक प्रतिष्ठानों द्वारा निर्मित चॉकलेटों के आकार? रंग? स्वाद? मूल्य आदि भिन्नभिन्न होते हुए भी सब चॉकलेट ही हैं? और इसलिए उन सबका वास्तविक धर्म मधुरता? सभी में एक समान होता है। उस मधुरता को चाहने वाले बालक सभी प्रकार की चॉकलेटों को प्रसन्नता से खाते हैं।इसी प्रकार आत्मज्ञान का साधक सभी नाम और रूपों में? सभी परिस्थितियों और दशाओं में एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति का अवलोकन करता है? निरीक्षण करता है और पहचानता है। जिस किसी आभूषण विशेष में हीरे जड़े हों? हीरे के व्यापारी के लिए वह सब प्रकाश और आभा के बिन्दु ही हैं। वह उनकी आभा के अनुसार उनका मूल्यांकन करता है? न कि उस आभूषण की रचनाकृति या सौन्दर्य को देखकर।आत्मानुभवी पुरुष अपने आत्मस्वरूप को सब प्रकार के कर्मों? शब्दों और विचारों में व्यक्त देखते हुए जगत् में विचरण करता है। जिस प्रकार सहस्र दर्पणों के मध्य स्थित दीपज्योति के करोड़ों प्रतिबिम्ब सर्वत्र दिखाई देते हैं? उसी प्रकार? आत्मस्वरूप में स्थित ज्ञानी पुरुष जब जगत् में विचरण करता है? तब वह सर्वत्र अपनी आत्मा को ही नृत्य करते हुए देखता है? जो उस पर सब ओर से कटाक्ष करती हुई उसे सदैव पूर्णत्व के आनन्द से हर्षविभोर करती रहती है।नेत्रों की दीप्ति में? मित्र की मन्दस्मिति और शत्रु के कृत्रिम हास्य में? ईर्ष्या के कठोर शब्दों में और प्रेम के कोमल स्वरों में? शीत और उष्ण में? जय और पराजय में? समस्त मनुष्यों? पशुओं? वृक्ष लताओं में और जड़ वस्तुओं के संग में सर्वत्र वह सच्चिदानन्द परमात्मा का ही मंगल दर्शन करता है यही अर्थ है ईश्वर दर्शन अथवा आत्मदर्शन का? जिसका विश्व के समस्त धर्मशास्त्रों में गौरव से गान किया गया है। असंख्य नामरूपों में ईश्वर की मन्दस्मिति को देखने और पहचानने का अर्थ ही निरन्तर ज्ञानयज्ञ की भावना में रमना और जीना है।समस्त रूपों में उसकी पूजा करना? समस्त परिस्थितियों में उसका ध्यान रखना? मन की समस्त वृत्तियों के साथ उसका अनुभव करना ही आत्मा के अखण्ड स्मरण में जीना है। ऐसे पुरुष ज्ञानयज्ञ के द्वारा मेरी उपासना करते हैं।प्रारम्भिक अवस्था में सर्वत्र आत्मदर्शन की साधना प्रयत्न साध्य होने के कारण उसमें साधक को कष्ट और तनाव का अनुभव होता है। परन्तु जैसेजैसे साधक की आध्यात्म दृष्टि विकसित होती जाती है? वैसेवैसे उसके लिए यह साधना सरल बनती जाती है? और वह एक ही आत्मा को इसके ज्योतिर्मय वैभव के असंख्य रूपों में छिटक कर फैली हुई देखता है। यही है विश्वतो मुखम् ईश्वर का विराट् स्वरूप।ज्ञानी पुरुष न केवल यह जानता है कि नानाविध उपाधियों से आत्मा सदा असंस्पर्शित है? अलिप्त है? वरन् वह यह भी अनुभव करता है कि विश्व की समस्त उपाधियों में वही एक आत्मा क्रीड़ा कर रही है। एक बार आकाश में स्थित जगत् से अलिप्त सूर्य को पहचान लेने पर? यदि हम उसके असंख्य प्रतिबिम्ब भी दर्पणों या जल में देखें? तब भी एक सूर्य होने का हमारा ज्ञान लुप्त नहीं हो जाता। सर्वत्र हम उस एक सूर्य को ही देखते और पहचानते हैं।यदि कोई पुरुष अपने मन की शान्ति और समता को किसी एकान्त और शान्त स्थान में ही बनाये रख सकता है? तो वेदान्त के अनुसार? उसका आत्मनुभव कदापि पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। यदि केवल समाधि स्थिति के विरले क्षणों में ही उसे आत्मानुभूति होती है? तो ऐसा पुरुष? वह तत्त्वदर्शी नहीं है? जिसकी उपनिषद् के ऋषियों ने प्रशंसा की है। यह तो हठयोगियों का मार्ग है। अन्तर्बाह्य सर्वत्र एक ही आत्मतत्त्व को पहचानने वाला ही वास्तविक ज्ञानी पुरुष है। एक तत्त्व सबको व्याप्त करता है परन्तु उसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता। ऐसे अनुभवी पुरुष के लिए किसी व्यापारिक केन्द्र का अत्यन्त व्यस्त एवं तनावपूर्ण वातावरण आत्मदर्शन के लिए उतना ही उपयुक्त है जितना हिमालय की घाटियों की अत्यन्त शान्त और एकान्त कन्दराओं का। वह चर्मचक्षुओं से नहीं? वरन् ज्ञान के अन्तचक्षुओं से सर्वत्र एकमेव अद्वितीय आत्मा का ही दर्शन करता है।मेरे हाथों और पैरों में? मैं सदा एक समान व्याप्त रहता हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं उन सब में हूँ। क्या इस ज्ञान से मेरे हाथ पैर लुप्त हो जाते हैं? जैसे सूर्योदय पर कोहरा यदि कोई ऐसा कहता है? तो वह खिल्ली उड़ाकर जाने वाला पागलपन ही है? कोई वैज्ञानिक कथन नहीं। जैसे एक ही समय में मैं अपने शरीर के अंगप्रत्यंग में स्थित हुआ जाग्रत् अवस्था में जगत् का अनुभव करता हूँ? वैसे ही? आत्मज्ञानी पुरुष जानता है कि उसकी आत्मा ही अपने अनन्त साम्राज्य में सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किये हुए हैं एक रूप में? पृथक् रूप में और विविध रूप में।वेदान्त प्रतिपादित दिव्यत्व की पहचान और अनन्त का अनुभव अन्तर्बाह्य जीवन में है। कोई संयोगवश प्राप्त यह क्षणिक अनुभव नहीं है। यह कोई ऐसा अवसर नहीं है कि जिसे लड्डू वितरित कर मनाने के पश्चात् सदा के लिए उस अनुभव से निवृत्ति हो जाय। जिस प्रकार विद्यालयी शिक्षा से मनुष्य द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान समस्त कालों और परिस्थितियों में यहाँ तक कि स्वप्न में भी उसके साथ रहता है? उससे भी कहीं अधिक शक्तिशाली? कहीं अधिक अंतरंग और कहीं अधिक दृढ़ ज्ञानी पुरुष का आत्मानुभव होता है। आत्मवित् आत्मा ही बन जाता है। इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं है। वेदान्त के द्वारा प्रतिपादित इस सत्य की पुष्टि दूसरी पंक्ति में की गई है कि मुझ विराट स्वरूप परमात्मा को वे एकत्व भाव से? पृथक् भाव से और अन्य कई प्रकार से उपासते हैं।अब तक हमने जो विवेचन किया है उसे यहाँ प्रमाणित किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब ध्यानाभास द्वारा मन प्रशान्त हो जाता है? तब एकमेव अद्वितीय आत्मा का उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव होता है। मिट्टी का ज्ञाता मिट्टी के बने विभिन्न प्रकार के घटों में एक ही मिट्टी को सरलता से देख सकता है घटों के रूप? रंग और आकार उसके मिट्टी के ज्ञान को नष्ट नहीं कर सकते। इसी प्रकार पारमार्थिक सत्य पर जो आभासिक और मोहक नाम और रूप अध्यस्त हैं? वे ज्ञानी पुरुष की दृष्टि से सत्य को न कभी आच्छादित कर सकते हैं और न वे ऐसा करते ही हैं। सत्य के द्रष्टा ऋषि आत्मा को न केवल प्रत्येक व्यक्ति में पृथक्पृथक् रूप से पहचानते हैं? वरन् जैसा कि यहाँ वेदान्त के समर्थक भगवान् श्रीकृष्ण उद्घोष करते हैं ज्ञानीजन सत्य को प्रत्येक रूप में पहचानते हैं? जो विश्वतोमुख है अर्थात् जिसके मुख सर्वत्र हैं। यह कहना सर्वथा असंगत है कि मिट्टी का ज्ञाता मिट्टी के घट को केवल दक्षिण या वाम भाग में ही पहचानता है मिट्टी उस घट में सर्वत्र व्याप्त है और जहाँ मिट्टी नहीं वहां घट भी नहीं है। यदि आत्मा का अभाव हो? तो सृष्टि की विविधता की प्रतीति या दर्शन कदापि सम्भव नहीं हो सकता।यदि विविध रूपों में? विभिन्न प्रकार से पूजा और उपासना की जाती हो? तो वे सब एक ही परमात्मा की पूजा कैसे हो सकती हैं
English Translation By Swami Sivananda
9.15 Others also sacrificing with the wisdom-sacrifice worship Me, the All-faced, as one, as distinct, and as manifold.