Verse: 8,8
मूल श्लोक :
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।8.8।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।8.8।।हे पृथानन्दन अभ्यासयोगसे युक्त और अन्यका चिन्तन न करनेवाले चित्तसे परम दिव्य पुरुषका चिन्तन करता हुआ (शरीर छोड़नेवाला मनुष्य) उसीको प्राप्त हो जाता है।
।।8.8।। इस श्लोक में प्रयुक्त याति क्रियापद का अर्थ है जाता है। परन्तु यह परम पुरुष को जाना या प्राप्त होना मृत्यु के पश्चात् ही नहीं समझना चाहिए। मृत्यु से तात्पर्य अहंकार के नाश से है जिसका उपाय है ध्यानाभ्यास। इस श्लोक का प्रयोजन यह दर्शाना है कि परिच्छिन्न अहंकार के लुप्त होने पर कोई भी साधक मुक्त पुरुष के रूप में इसी जीवन में सदा स्वस्वरूप में स्थित रहकर जी सकता है।जो व्यक्ति जगत् में अस्थायी यात्री के रूप में और न कि स्थायी निवासी बनकर उपर्युक्त जीवन पद्धति के अनुसार जीता है और नित्यनिरन्तर आत्मचिन्तन का अभ्यास करता है वह निश्चय ही ध्यान में एकाग्र हो जाता है। वास्तव में यह वेदोपदिष्ट प्रार्थना और उपासना का तथा पुराणों में वर्णित भक्ति और प्रपत्ति (शरणागति) की साधनाओं का ही स्पष्टीकरण है जबकि पूर्व श्लोक में जो उपदेश है वह धर्म के व्यावहारिक स्वरूप का है अर्थात् अपने कार्यक्षेत्र में ही संन्यास के स्वरूप का है।इस अभ्यासयोग के फलस्वरूप भक्त को चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है जो बुद्धि को सुगठित करने में उपयोगी होती है। ऐसे अन्तःकरण के आत्म साक्षात्कार के योग्य हो जाने पर आत्मा की अनुभूति सहज सिद्ध हो जाती है। निरन्तर चिन्तन से हे पार्थ साधक परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है। यह नियम न केवल परम पुरुष की प्राप्ति के विषय में सत्य प्रमाणित है वरन् किसी भी वस्तु के लिए यह समान रूप से लागू होता है। इससे इस श्लोक का गूढ़ार्थ स्पष्ट हो जाता है। यदि साधक सर्वसाधन सम्पन्न हो तो आत्मा का अनुभव तथा उसमें दृढ़ निष्ठा इसी वर्तमान जीवन में ही प्राप्त की जा सकती है।यहाँ प्रयुक्त अनुचिन्तयन् शब्द साभिप्राय है। ध्येयविषयक सजातीय वृत्ति प्रवाह को चिन्तन या ध्यान कहते हैं। अनु उपसर्ग का अर्थ है निरन्तर। अत यहाँ दिव्य पुरुष को निरन्तर चिन्तन करने का उपदेश दिया गया है।वह ध्येय पुरुष किन गुणों से विशिष्ट है भगवान् कहते हैं --
English Translation By Swami Sivananda
8.8 With the mind not moving towards any other thing, made steadfast by the method of habitual meditation, and constantly meditating, one goes to the Supreme Person, the Resplendent, O Arjuna.