Verse: 8,6
मूल श्लोक :
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।8.6।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।8.6।।हे कुन्तीपुत्र अर्जुन मनुष्य अन्तकालमें जिसजिस भी भावका स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है वह उस (अन्तकालके) भावसे सदा भावित होता हुआ उसउसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उसउस योनिमें ही चला जाता है।
।।8.6।। भारत के महान तत्त्वचिन्तक ऋषियों द्वारा सम्यक् विचारोपरांत पहुँचे हुए निष्कर्ष को भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ घोषित करते हैं अन्तकाल में जिस किसी भाव का स्मरण करते हुए जीव देह को त्यागता है वह उसी भाव को प्राप्त होता है चाहे वह पशुत्व का भाव हो अथवा देवत्व का।जैसा तुम सोचोगे वैसे ही बनोगे यह एक ऐसा सिद्धांत है जो किसी भी बुद्धिमान पुरुष को किसी दार्शनिक द्वारा दिए गये स्पष्टीकरण के बिना भी स्वत स्पष्ट हो जाता है। कर्मों के प्रेरक विचार हैं और किसी भी एक विशेष क्षण पर मनुष्य के मन में जो विचार आते हैं वे उसके पूर्वार्जित संस्कारों के अनुरूप ही होते हैं। इन संस्कार या वासनाओं का मनुष्य स्वयं निर्माण करता है। स्वाभाविक है जिस पुरुष ने जीवन पर्यन्त अनात्म उपाधियों से तादात्म्य हटाकर मन को आत्मा में स्थिर करने का सतत प्रयत्न किया हो ऐसे साधक पुरुष के मन में अध्यात्म संस्कार दृढ़ हो जाते हैं। इस सतत चिन्तन और संस्कारों के प्रभाव से मरणकाल में उसकी वृत्त सहज ही ध्येय विषयक होगी और तदनुसार ही मरणोपरांत उसकी यात्रा अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर ही होगी। हम यह नहीं सोचें कि अन्तकाल में हम ईश्वर का स्मरण कर लेंगे अन्तकाल में अपनी भावी यात्रा को निर्धारित करने का अवसर नहीं होता क्योंकि पूर्वाभ्यास के अनुसार उसी प्रकार की ही वृत्ति मन में उठती है।
English Translation By Swami Sivananda
8.6 Whosoever at the end leaves the body, thinking of any being, to that being only does he go, O son of Kunti (Arjuna), because of his constant thought of that being.