Verse: 6,9
मूल श्लोक :
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।6.9।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।6.9।।सुहृद् मित्र वैरी उदासीन मध्यस्थ द्वेष्य और सम्बन्धियोंमें तथा साधुआचरण करनेवालोंमें और पापआचरण करनेवालोंमें भी समबुद्धिवाला मनुष्य श्रेष्ठ है।
।।6.9।। पूर्व श्लोक में ज्ञानी पुरुष की जड़ वस्तुओं की ओर अवलोकन करने की दृष्टि का वर्णन किया गया है। परन्तु जगत् केवल जड़ वस्तुओं से ही नहीं बना है। उसमें चेतन प्राणी भी हैं। मानव मात्र के साथ ज्ञानी पुरुष किस भाव से रहेगा क्या उन्हें मिथ्या कहकर उनके अस्तित्व का निषेध कर देगा क्या जगत् के अधिष्ठान स्वरूप परमात्मा में स्थित होकर वह लोगों की सेवा के प्रति उदासीन रहेगा इन प्रश्नों का उत्तर इस श्लोक में दिया गया है।भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा ज्ञानी पुरुष सभी मनुष्यों के साथ समान प्रेम भाव से रहता है चाहे वे सुहृद् हों या मित्र शत्रु उदासीन मध्यस्थ बन्धु साधु हों या पापी। अपनी विशाल सहृदयता में वह सबका आलिंगन करता है। प्रेम और आदरभाव से सबके साथ रहता है। उसकी दृष्टि में वे सभी समान महत्त्वपूर्ण हैं।उसका प्रेम साधु और पापी उत्कृष्ट और निकृष्ट में भेद नहीं करता। वह जानता है कि आत्मस्वरूप के अज्ञान से ही पुरुष पापकर्म में प्रवृत्त होता है और अपने ही कर्मों से दुख उठाता है। स्वामी रामतीर्थ इसे बड़ी सुन्दरता से व्यक्त करते हुये कहते हैं कि हम अपने पापों से दण्डित होते हैं न कि पापों के लिए।आत्मस्वरूप के अपरोक्ष अनुभव से वह यह पहचान लेता है कि एक ही आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। अनेकता में एकता को वह जानता है औऱ विश्व के सामञ्जस्य को पहचानता है। सर्वत्र व्याप्त आत्मस्वरूप का अनुभव कर लेने पर वह किसके साथ प्रेम करेगा और किससे घृणा मनुष्य के शरीर के किसी भी अंग में पीड़ा होने पर सबकी ओर देखने का उसका भाव एक ही होता है क्योंकि सम्पूर्ण शरीर में ही वह स्वयं व्याप्त है।इस उत्तम फल को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिये उत्तर है
English Translation By Swami Sivananda
6.9 He who is of the same mind to the good-hearted, friends, enemies, the indifferent, the neutral, the hateful, the relatives, the righteous and the unrighteous, excels.