Verse: 6,6
मूल श्लोक :
बन्धुरात्माऽऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।6.6।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।6.6।।जिसने अपनेआपसे अपनेआपको जीत लिया है उसके लिये आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपनेआपको नहीं जीता है ऐसे अनात्माका आत्मा ही शत्रुतामें शत्रुकी तरह बर्ताव करता है।
।।6.6।। जिस मात्रा में जीव शरीर मन और बुद्धि से तादात्म्य को त्यागता है उस मात्रा में वह आत्मा के दिव्य प्रभाव से प्रभावित होता है। तब आत्मा उसका मित्र कहलाता है। वही मन जब बहिर्मुखी होकर विषयों मे आसक्त होता है तब मानों आत्मा उसका शत्रु होता है।निष्कर्ष यह निकला कि चैतन्य आत्मा समान रूप से विद्यमान रहता है परन्तु मन की अन्तर्मुखी अथवा बहिर्मुखी प्रवृत्तियों की दृष्टि से वह मनुष्य का मित्र अथवा शत्रु कहलाता है। और यदि आत्मा शब्द का अर्थ मन करें तो अर्थ होगा कि संयमित मन मनुष्य का मित्र है और स्वेच्छाचारी उसका शत्रु । यह श्लोक पूर्व श्लोक के अर्थ को अधिक स्पष्ट करता है।योगरूढ़ मनुष्य के पूर्णत्व की स्थिति को अगले श्लोक में बताया गया है
English Translation By Swami Sivananda
6.6 The Self is the friend of the self of him by whom the self has been conered by the Self, but to the unconered self, this Self stands in the position of an enemy, like an (external) foe.