Verse: 6,40
मूल श्लोक :
श्री भगवानुवाचपार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।नहि कल्याणकृत्कश्िचद्दुर्गतिं तात गच्छति।।6.40।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।6.40।।श्रीभगवान् बोले हे पृथानन्दन उसका न तो इस लोकमें और न परलोकमें ही विनाश होता है क्योंकि हे प्यारे कल्याणकारी काम करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको नहीं जाता।
।।6.40।। अपने उत्तर के प्रारम्भ में ही भगवान् स्पष्ट आश्वासन देते हैं कि कोई भी शुभ कर्म करने वाला न इहलोक में और न परलोक में दुर्गति को प्राप्त होता है।भगवान् का यह कथन किसी अन्धविश्वास पर आधारित मात्र भावुक आश्वासन नहीं है अथवा न किसी देवदूत के माध्यम से दिया गया दैवी आदेश है जिसे धर्मपारायण लोगों को स्वीकार ही करना है। मनुष्य की बुद्धि एवं तर्क के विरुद्ध किसी भी मत को हिन्दू स्वीकार नहीं करते चाहे वह मत किसी देवता का ही क्यों न हो। धर्म जीवन का विज्ञान है और इसलिये उसमें प्रतिपादित सिद्धान्तों एवं साधनाओं का युक्तियुक्त विवेचन भी होना आवश्यक है।हमारी संस्कृति की इस विशिष्टता के अनुरूप ही भगवान् अपने कथन को स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि हे तात कोई भी शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। वर्तमान में पुण्य कर्म करने वाला भविष्य में कभी दुख नहीं पायेगा क्योंकि भूत और वर्तमान का परिणत रूप ही भविष्य है।अर्जुन को योगभ्रष्ट के नाश की आशंका होने का कारण यह था कि जीवन की निरन्तरता और नियमबद्धता को वह ठीक से समझ नहीं पाया था। जन्म और मृत्यु के साथ ही जीव के अस्तित्व का प्रारम्भ और नाश हुआ समझना दर्शनशास्त्र की प्रारम्भिक अवस्था में ही संभव है। वस्तुत ऐसे सिद्धांत को दर्शन भी नहीं कहा जा सकता।साहसिक बुद्धि के जो जिज्ञासु साधक जीवन के नियम एवं अर्थ तथा विश्व के प्रयोजन को जानना चाहते हैं उन्हें यह स्वीकारना पड़ेगा कि मनुष्य का वर्तमान जीवन सत्य के वक्षस्थल को सुशोभित करने वाले अनन्त सौन्दर्य के कण्ठाभरण का एक मुक्ता है। भूत का परिणाम है वर्तमान और प्रत्येक विचार ज्ञान एवं कर्म के द्वारा हम भविष्य की रूपरेखा खींच रहे होते हैं। हिन्दुओं में देहधारी जीव के पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म में विश्वास किया जाता है। इसी को पुनर्जन्म का सिद्धांत कहते हैं।इसी सिद्धांत के आधार पर श्रीकृष्ण यहाँ योगी के विनाश अथवा दुर्गति की संभावना को नकारते हैं। हो सकता है कि कभीकभी साधक का पतन होते हुए या मृत्यु होती हुई दिखाई दे किन्तु उनका विनाश नहीं होता। आज का परिणत रूप भविष्य है।पुत्र को संस्कृत में तात कहते हैं। उपनिषदों में भी शिष्य को पुत्र रूप में संबोधित किया गया है। उसी परम्परा के अनुसार अर्जुन को तात कहकर संबोधित करने में उसके प्रति भगवान् का पुत्रवत् भाव स्पष्ट हो जाता है। कोई व्यक्ति अन्य लोगों के प्रति कितनी ही दुष्टता एवं वंचना का भाव क्यों न रखता हो परन्तु अपने ही पुत्र को हानि पहुँचाने का विचार उसके मन में कभी नहीं आता। इसी पितृप्रेम से श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि साधक का कभी वास्तविक पतन नहीं होता। आत्मिक विकास की सीढ़ी पर एक भी सोपान चढ़ने का अर्थ है पूर्णत्व की ओर बढ़ना।योगसिद्धि को जो प्राप्त नहीं हुआ उसकी निश्चित रूप से क्या गति होती है भगवान् कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
6.40 The Blessed Lord said O Arjuna, neither in this world, nor in the next world is there destruction for him; none, verily, who does good, O My son, ever comes to grief.