Verse: 6,36
मूल श्लोक :
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।6.36।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।6.36।।जिसका मन पूरा वशमें नहीं है उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है। परन्तु उपायपूर्वक यत्न करनेवाले वश्यात्माको योग प्राप्त हो सकता है ऐसा मेरा मत है।
।।6.36।। पूर्व श्लोक के अभ्यास में अत्याधिक बल दिया गया था परन्तु अभ्यास क्या है इसका निर्देश नहीं किया गया। किसी शब्द की परिभाषा तर्क या युक्ति के अभाव में कोई भी शास्त्रीय ग्रन्थ पूर्ण नहीं माना जा सकता। विचाराधीन श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अभ्यास का अर्थ स्पष्ट करते हैं।असंयत मन का अर्थात् विघटित व्यक्तित्व का पुरुष अध्यात्म साधना के लिए आवश्यक सजगता उत्साह और सार्मथ्य से रहित होता है और इस कारण वह आत्मसाक्षात्कार के शिखर तक नहीं पहुँच पाता।जो व्यक्ति शारीरिक सुखों में आसक्त होकर विषयों का दास बन जाता है अथवा कामुक मन के गाये मृत्युगीत की शोकधुन पर नृत्य करता है अथवा मदोन्मत्त बुद्धि की विकृत दुष्ट और अन्तहीन इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु इतस्तत भ्रमण करता रहता है उस पुरुष में न वह शान्ति होती है और न स्फूर्ति जो उसे अन्तरात्मा के मन्दिर तक पहुँचाने के लिए उद्यत कर सके।जब तक इन्द्रियां वश में नहीं होतीं तब तक मन के विक्षेप शान्त नहीं हो सकते। विक्षेपयुक्त मन के द्वारा न श्रवण हो सकता है न मनन और न निदिध्यासन ही। इन तीनों के बिना आवरण शक्ति की निवृत्ति नहीं हो सकती। आवरण और विक्षेप ये क्रमश तमोगुण और रजोगुण के कार्य हैं। हम देख चुके हैं कि इन दो गुणों को वश में किये बिना सत्वगुण का प्रभाव साधक में दृष्टिगोचर नहीं होता।वादविवाद की सामान्य पद्धति के अनुसार अपना मत प्रस्तुत करते समय प्रतियोगी के तर्कों का खण्डन इस प्रकार करना होता है कि वह दोनों मतों के अन्तर को देखकर हमारे दृष्टिकोण की युक्तियुक्तता एवं स्वीकार्यता को समझ सके। इसी पद्धति का उपयोग करते हुए दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं परन्तु स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा किये गये उपाय से योग प्राप्त होना संभव है। इन्द्रियों को उनके विषयों से पराङमुख करना आध्यात्मिक जीवन का प्रथम सोपान है जो मन को सत्याभिमुख किये बिना संभव नहीं हो सकता।लौकिक जीवन में भी त्याग और तप के बिना कोई भी लक्ष्य प्राप्त नहीं होता । चुनाव के समय एक प्रत्याशी का और परीक्षा के पूर्व एक विद्यार्थी का जीवन अथवा एक अभिनेता या नर्तकी का रंगमंच पर प्रथम कार्यक्रम प्रस्तुत करने के पूर्व का जीवनये कुछ उदाहरण हैं जिनमें हम देखते हैं कि अपनेअपने कार्य क्षेत्रों में सफलता पाने के लिए ये सभी लोग सामान्य भोगमय जीवन को त्यागकर कठिन परिश्रम करते हैं। यदि केवल सामान्य और अनित्य लौकिक वस्तु या कीर्ति प्राप्त करने के लिए भी इतने बड़े त्याग तप और संयम की आवश्यकता होती है तब नित्य अनन्त अखण्ड आत्मानन्द की प्राप्ति के लिए कितने अधिक आत्मसंयम की आवश्यकता होगी इसकी कोई भी व्यक्ति सहज ही कल्पना कर सकता है।इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि साधक को सभी विषयों को पूर्णतया त्याग देना चाहिए। परन्तु प्राय साधकों की यही धारणा बन जाती है।धर्म या साधना के नाम पर अनेक साधक कुछ काल तक अत्यन्त कठोर तप का जीवन जीते हैं जिसमें शरीर को क्लेश देना शारीरिक आवश्यकताओं एवं प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग और दमन करना सम्मिलित है। इस प्रकार स्वयं पर आसुरी और आत्मघातक अत्याचार करने पर निश्चय ही एक समय यही दमित प्रवृत्तियां भयंकर रूप में फूटकर बाहर निकल पड़ती हैं।कहीं ऐसा न हो कि गीता का अध्येतावर्ग भी इसी भ्रामक विचार की बलि बन जाये भगवान् कहते हैं कि इस योग को प्रयत्नशील साधक उचित उपाय के द्वारा प्राप्त कर सकता है। केवल चित्रपट देखने न जाने अथवा खेलकूद को त्यागने से ही कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकता क्योंकि उसके साथ ही अध्ययन में समय का सदुपयोग करना नितान्त आवश्यक होता है। एक बात और भी है कि गणित की परीक्षा हो और विद्यार्थी भूगोल का अध्ययन कर रहा हो तो उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकती। उचित प्रयत्न के द्वारा ही सफलता प्राप्त की जा सकती है।इसी प्रकार वैषयिक भोग के त्यागरूप तप के द्वारा संचित शक्ति का उपयोग साधक को निदिध्यासन में करना चाहिए जिसका फल आत्मसाक्षात्कार अर्थात् स्वस्वरूप की पहचान है। ऐसा साधनसम्पन्न व्यक्ति इस योग को प्राप्त कर सकता है आनन्दकन्द भगवान् श्रीकृष्ण का यह आशावादी तत्त्वज्ञान है।इन दो श्लोकों के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं और आगे के प्रकरण से यह सिद्ध होता है कि अर्जुन उनके उत्तर से सन्तुष्ट हो जाता है।एक प्रश्न फिर भी रह जाता है कि उस पुरुष की गति क्या होती है जो संयमित होकर योगाभ्यास करता है परन्तु योगफल प्राप्त करने के पूर्व ही योग से विचलित हो जाता है
English Translation By Swami Sivananda
6.36 I think Yoga is hard to be attained by one of uncontrolled self, but the self-controlled and striving one can attain to it by the (proper) means.