Verse: 6,32
मूल श्लोक :
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।6.32।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।6.32।।हे अर्जुन जो (ध्यानयुक्त ज्ञानी महापुरुष) अपने शरीरकी उपमासे सब जगह अपनेको समान देखता है और सुख अथवा दुःखको भी समान देखता है वह परम योगी माना गया है।
।।6.32।। तत्त्वज्ञान और आत्मानुभव में स्थित योगीजन स्वभावत सर्वत्र व्याप्त आत्मा के दर्शन करते हैं। वे सभी कर्मों में आत्मा के वैभव को देखते हैं और जानते हैं कि उपाधियों के द्वारा किये जाने वाले समस्त कर्म आत्मकृपा से ही होते हैं। बाह्य स्थूल और आन्तरिक सूक्ष्म जगत् आत्मा की ही अभिव्यक्ति है।गीता के अनुसार सर्वश्रेष्ठ योगी वह है जो अन्य के सुख एवं दुख को इस प्रकार समझता है जैसे वे उसके अपने ही हों। प्रसिद्ध नैतिक नियम है कि अन्य के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा कि उससे तुम अपेक्षा रखते हो। परन्तु यह नियम सामान्य मनुष्य को अप्रिय लगता है क्योंकि स्वार्थ के कारण वह सोचता है कि क्यों वह दूसरों को अपने ही समान समझे। अज्ञान तथा स्वार्थ के कारण लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्ति अनैतिकता की ओर झुक जाती है।पूर्व श्लोकों में इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि क्यों हमें प्राणीमात्र से प्रेम करना चाहिए। योगी आत्मसाक्षात्कार के द्वारा समस्त सृष्टि को आत्मा की ही अभिव्यक्ति के रूप में पहचानता है अत सबसे प्रेम होना स्वाभाविक ही है। प्रत्येक मनुष्य को अपने शरीर से तादात्म्य होने के कारण शरीर के समस्त अंगों से उसे एक समान ही प्रेम होता है। यदि अकस्मात् दांतों से जिह्वा कट जाती है तो मनुष्य कभी भी दांतों को दण्ड देने का विचार नहीं करता क्योंकि दांतों में तथा जिह्वा में समान रूप से वह स्वयं व्याप्त है। इसी प्रकार आत्मा को पहचान लेने पर सम्पूर्ण नामरूप की सृष्टि आत्मस्वरूप ही बन जाती है और समस्त कालों में सर्वत्र केवल मैं (आत्मा) ही व्याप्त रहता हूँ।आत्मैकत्व दर्शन करने वाला सिद्ध व्यक्ति ही गीता में परम योगी माना गया है जो समाज को देता अधिक है और लेता कम है। प्रेम उसका श्वास है और करुणा उसकी जीविका।श्रीकृष्ण द्वारा ज्ञानी पुरुष का जो उपर्युक्त वर्णन शब्दचित्र के माध्यम से किया गया है वह किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकता है किन्तु व्यावहारिक बुद्धि का अर्जुन उक्त लक्ष्य को पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है और वह प्रश्न के रूप में अपनी शंका को व्यक्त करता है।यथोक्त सम्यग्दर्शन रूप योग का संपादन दुष्कर जानकर उसकी प्राप्ति का निश्चयात्मक उपाय जानने की इच्छा से अर्जुन कहता है
English Translation By Swami Sivananda
6.32 He who, through the likeness of the Self, O Arjuna, sees eality everywhere, be it pleasure or pain, he is regarded as the highest Yogi.