Verse: 6,30
मूल श्लोक :
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।6.30।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।6.30।।जो सबमें मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
।।6.30।। पहले यह कहा गया था कि ब्रह्मसंस्पर्श से योगी अत्यन्त सुख प्राप्त करता है। ब्रह्मसंस्पर्श से तात्पर्य आत्मा और ब्रह्म के एकत्व से है जो उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है। इस ज्ञान को स्वयं भगवान् ही यहाँ स्पष्ट दर्शा रहे हैं। आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र आत्मा का अनुभव करता है।जो मुझे सबमें और सब को मुझमें देखता है अन्य स्थानों के समान ही यहाँ प्रयुक्त मैं शब्द का अर्थ आत्मा है न कि देवकीपुत्र कृष्ण। इस व्याख्या के प्रकाश में जो पुरुष पूर्व श्लोक के साथ इस श्लोक को पढ़ेगा उसे प्रसिद्ध ईशावास्योपनिषद् की इस घोषणा का गूढ़ अर्थ स्पष्ट हो जायेगा ।वह मुझसे वियुक्त नहीं होता बुद्धि से अतीत आत्मा का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता वरन् जीव पाता है कि वह स्वयं आत्मस्वरूप (शिवोऽहम्) है। स्वप्नद्रष्टा पुरुष जागने पर स्वयं जाग्रत् पुरुष बन जाता है वह जाग्रत् पुरुष को उससे भिन्न रहकर कभी नहीं जान सकता।और न मैं उससे वियुक्त होता हूँ द्वैतवादी लोग अपने जीवभाव और देहात्मभाव की दृढ़ता के कारण इस अद्वैत स्वरूप को स्वीकार नहीं कर पाते । जिस स्पष्टता से यहाँ जीव के दिव्य स्वरूप की घोषणा की गयी है उसे और अधिक स्पष्ट नहीं किया जा सकता। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ किसी भी प्रकार से इस तथ्य को गूढ़ और गोपन नहीं रखना चाहते कि अनात्म उपाधियों से तादात्म्य को त्यागने पर योगी स्वयं परमात्मस्वरूप बन जाता है। हो सकता है कि किन्हींकिन्हीं लोगों के लिए यह सत्य चौंका देने वाला हो तथापि है तो वह सत्य ही। जिन्हें इसे स्वीकार करने में संकोच होता हो वे अपने जीव भाव को ही दृढ़ बनाये रख सकते हैं। परन्तु भारत में गुरुओं की परम्परा ने तथा विश्व के अन्य अनुभवी सन्तों ने इसी सत्य की पुष्टि की है कि एक व्यक्ति के हृदय में स्थित आत्मा ही सर्वत्र नामरूपों में स्थित है।वर्तमान दशा में हम अपने आप से ही दूर हो चुके हैं अहंकार एक राजद्रोही है जिसने आत्मसाम्राज्य से स्वयं का निष्कासन कर लिया है। आत्मप्राप्ति पर अहंकार उसमें पूर्णतया विलीन हो जाता है। स्वप्नद्रष्टा के जागने पर वह जाग्रत् पुरुष से भिन्न नहीं रह सकता। भगवान् यहाँ कहते हैं कि साधक और मैं एक दूसरे से कभी वियुक्त नहीं होते।वास्तव में यदि हम यह समझ लेते हैं कि आत्मविस्मृति के कारण परमात्मा जीवभाव को प्राप्त सा हुआ है तो यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि आत्मज्ञान के द्वारा जीव पुन परमात्मस्वरूप को प्राप्त हो सकता है। जैसे एक अभिनेता रंगमंच पर भिक्षुक का अभिनय करते हुए भी वास्तव में भिक्षुक नहीं बन जाता और नाटक की समाप्ति पर भिक्षुक के वेष को त्यागकर पुन स्वरूप को प्राप्त हो जाता है वैसे ही आत्मज्ञान के विषय में भी जीव का ब्रह्मरूप होना है। वेदान्त की यह साहसिक घोषणा समझनी कठिन नहीं है परन्तु सामान्य अज्ञानी जन इससे स्तब्ध होकर रह जाते हैं और अपने दोषों के कारण इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते। उनमें इतना साहस और विश्वास नहीं कि वे दिव्य जीवन जीने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले सकें। इस श्लोक में भगवान् का कथन परमार्थ सत्य के स्वरूप के संबंध में उपनिषदों के निष्कर्ष के विषय में रंचमात्र भी सन्देह नहीं रहने देता।पूर्व श्लोक में कथित सम्यक् दर्शन को पुन बताकर कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
6.30 He who sees Me everywhere and sees everything in Me, he never becomes separated from Me, nor do I become separated from him.