Verse: 6,3
मूल श्लोक :
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।6.3।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।6.3।।जो योग(समता)में आरूढ़ होना चाहता है ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्यकर्म करना कारण है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण है।
।।6.3।। ध्यानयोग पर आरूढ़ होने के इच्छुक व्यक्ति के लिए प्रथम साधन कहा गया है कर्म। जगत् में कर्तृत्व के अभिमान और फलासक्ति का त्याग करके कर्म करने से पूर्व संचित वासनाओं का क्षय होता है और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं।यहाँ योगारूढ़ होने के विषय को स्पष्ट करने के लिए अश्वारोहण (घोड़े की सवारी) के अत्यन्त उपयुक्त रूपक का प्रयोग किया गया है। जब मनुष्य किसी स्वच्छंद अश्व पर पहली बार सवार होने का प्रयत्न करता है तब पहले तो वह अश्व ही उस पर सवार हो जाता है यदि कोई व्यक्ति युद्ध के अश्व को अपने पूर्णवश में करना चाहे तो कुछ काल तक उसे उस अश्व पर सवार होने का प्रयास करना पड़ता है। एक पैर को पायदान पर रखकर जीन पर झूलते हुए दूसरे पैर को पृथ्वी से उठाकर (उछलकर) अश्व की पीठ पर बैठने और उसे अपने वश में करने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। एक बार उस पर सवार हो जाने के बाद उसे अपने वश में रखना सरल काय्र्ा है परन्तु तब तक अश्वारोही को उस अवस्था में से गुजरना पड़ता है जब तक वह पूर्णरूप से न अश्व पर बैठा होता है और न पृथ्वी पर खड़ा होता है।प्रारम्भ में हम केवल कर्म करने वाले होते हैं अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित हुए हम परिश्रम करते हैं पसीना बहाते हैं रोते हैं हँसते हैं। जब व्यक्ति इस प्रकार के कर्मों से थक जाता है तब वह मनोरूप अश्व पर आरूढ़ होना चाहता है। ऐसे ही व्यक्ति को कहते हैं आरुरुक्ष (आरूढ़ होने की इच्छा वाला)। वह पुरुष कर्म तो पूर्व के समान ही करता है परन्तु अहंकार और स्वार्थ को त्यागकर। यज्ञ भावना से किये गये कर्म वासनाओं को नष्ट करके अन्तकरण को शुद्ध एवं सुसंगठित कर देते हैं। ऐसे शुद्धान्तकरण वाले साधक को शनैशनै कर्म से निवृत्त होकर ध्यान का अभ्यास अधिक करना चाहिए। जब वह मन पर विजय प्राप्त करके उसकी प्रवृत्त्ायों को अपने वश में कर लेता है तब वह योगारूढ़ कहा जाता है। मन के समत्व प्राप्त योगारूढ़ व्यक्ति के लिए ज्ञानरूप शम अर्थात् शांति वह साधन है जिसके द्वारा वह अपने पूर्णस्वरूप में स्थित हो सकता है।इस प्रकार एक ही व्यक्ति के लिए उसके विकास की अवस्थाओं को देखते हुए कर्म और ध्यान की दो साधनाएँ बतायी गयी हैं जो परस्पर विरोधी नहीं है । एक अवस्था में निष्काम कर्मों का आचरण उपयुक्त है तथापि कुछ काल के पश्चात् वह भी कभीकभी मनुष्य की शांति को भंग करके उसे मानो पृथ्वी पर पटक देता है। दुग्ध चूर्ण को पानी में घोलकर बनाया हुआ पतला दूध एक छोटे से शिशु के लिए तो पुष्टिवर्धक होता है परन्तु दूध की वह बोतल बड़े बालक के लिए पर्याप्त नहीं होती जो दिन भर खेलता है और काम करता है। उसे मक्खन और रोटी की आवश्यकता होती है। किन्तु यही रोटी शिशु के लिए प्राणघातक हो सकती है।इसी प्रकार साधना की प्रारम्भिक अवस्था में निष्काम कर्म समीचीन है परन्तु और अधिक विकसित हुए साधक को आवश्यक है आत्मचिन्तनरूप निदिध्यासन। पहले अहंकार रहित कर्म साधन है और तत्पश्चात् आत्मस्वरूप का ध्यान। इस ध्यानाभ्यास की आवश्यकता तब तक होती है जब तक साधक निश्चयात्मक रूप से यह अनुभव न कर ले कि शुद्ध आत्मा ही पारमार्थिक सत्य वस्तु है न कि अहंकार। तत्पश्चात् वह कर्म करे अथवा न करे उसे इस ज्ञान की विस्मृति नहीं होती।इस प्रकार आत्मोन्नति के मार्ग में कर्मों का एक निश्चित स्थान होना सिद्ध होता है और उसी प्रकार इसका उपदेश देने वाले मनीषियों की बुद्धिमत्ता भी प्रमाणित होती है।कब यह साधक योगरूढ़ बन जाता है उत्तर है
English Translation By Swami Sivananda
6.3 For a sage who wishes to attain to Yoga, action is said to be the means; for the same sage who has attained to Yoga, inaction (iescence) is said to be the means.