Verse: 6,29
मूल श्लोक :
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।6.29।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।6.29।।सब जगह अपने स्वरूपको देखनेवाला और ध्यानयोगसे युक्त अन्तःकरणवाला योगी अपने स्वरूपको सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूपमें देखता है।
।।6.29।। विश्व के सभी धर्म महान हैं परन्तु यदि धर्म शब्द का अर्थ आत्मोन्नति का विज्ञान है तो उनमें से कोई भी धर्म वेदान्त के समान पूर्ण नहीं है। इस श्लोक में गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं कि केवल वह पुरुष आत्मज्ञानी या ईश्वर का साक्षात्कारकर्ता नहीं कहा जा सकता जिसने मात्र स्वयं को ही शुद्ध दिव्य स्वरूप में अनुभव किया हो। वह पुरुष जिसने कि सम्पूर्ण भूतों में विराजमान एक ही आत्मतत्त्व के दर्शन किये हों आत्मज्ञानी कहा जायेगा। अपने हृदय में स्थित चैतन्य आत्मा ही सर्वत्र सभी नाम रूपों में स्थित है और यही चैतन्य सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। अत हृदयस्थ चैतन्य के अनुभव का अर्थ ही सर्वत्र व्याप्त नित्य तत्व को अनुभव करना है।हिन्दू धर्म में ऐसा कोई आत्मानुभवी पुरुष नहीं है जिसने दैवी करुणा से ही क्यों न होहे पापपुत्र जैसे अशोभनीय सम्बोधन द्वारा किसी को सम्बोधित किया हो। स्वामी रामतीर्थ के समान हिन्दू महात्मा पुरुष ने लोगों को हे अमृत के पुत्रों के अतिरिक्त किसी अन्य शब्द से संबोधित नहीं किया। अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव ही पूर्णत्व का द्योतक है जिसे ऋषियों ने सदैव अपना लक्ष्य बनाया है। इसी अनुभव को इस श्लोक में अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है।गीता के प्राय सभी अध्यायों में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि नामरूपमय यह सृष्टि पारमार्थिक सत्य की अभिव्यक्ति है अथवा यह सृष्टि उस सत्य पर अध्यस्त (कल्पित) है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण नामरूपों का अधिष्ठान यह देशकालातीत आत्मतत्व ही है। जैसे मिट्टी समस्त मिट्टी के बने पात्रों में सुवर्ण समस्त आभूषणों में जल समस्त तरंगों में वैसे ही आत्मा समस्त नामरूपों में अधिष्ठान के रूप में स्थित है।हम अपने शरीर मन और बुद्धि के द्वारा क्रमश भौतिक पदार्थ दूसरों की भावनाएँ और विचारों को देख और समझ पाते हैं। जिसने इन उपाधियों से परे ात्मस्वरूप ा साक्षात्कार कर लिया वह पुरुष उस आध्यात्मिक दृष्टि से जब जगत् को देखता है तब उसे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का ही अनुभव होता है। वह योगी स्वयं आत्मस्वरूप बन जाता है। मिट्टी की दृष्टि से घट नहीं है और न सुवर्ण की दृष्टि से आभूषण। उसी प्रकार आत्मदृष्टि से आत्मा ही विद्यमान है और उससे भिन्न कोई वस्तु नहीं है।इस ज्ञान को समझने से श्लोक का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। जिसने अनेकता में एक सत्य का दर्शन कर लिया वही आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र समदृष्टि सेब्राह्मण गाय हाथी श्वान और चाण्डाल को देख सकता है।अगले श्लोक में इस आत्मैकत्व दर्शन का फल बताते हैं
English Translation By Swami Sivananda
6.29 With the mind harmonised by Yoga he sees the Self abiding in all beings and all beings in the Self; he sees the same everywhere.