Verse: 6,17
मूल श्लोक :
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।6.17।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।6.17।।दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करनेवालेका कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका तथा यथायोग्य सोने और जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।
।।6.17।। इस श्लोक में वर्णित नियमों का जीवन में पालन करने से ध्यान का अभ्यास सहज सुलभ हो जाता है। आहारविहारादि में संयम रखने पर भगवान् विशेष बल देते हैं।आत्मसंयम के श्रेष्ठ जीवन का वर्णन करने में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है उनका भाव गम्भीर है और अर्थ व्यापक। साधारणत साधक निस्वार्थ कर्म को यह समझ कर अपनाते हैं कि यह कर्मपालन ही उन्हें आध्यात्मिक जीवन की योग्यता प्रदान करेगा। मुझे ऐसे अनेक साधक मिले हैं जो अपने ही प्रारम्भ किये गये कर्मों में इतना अधिक उलझ गये हैं कि वे उनसे बाहर निकल ही नहीं पाते। इस प्रकार स्वनिर्मित जाल से बचने का उपाय इस श्लोक में दर्शाया गया है।अपना कार्यक्षेत्र चुनने में विवेक का उपयोग करना ही चाहिए परन्तु तत्पश्चात् यह भी आवश्यक है कि हमारे प्रयत्न यथायोग्य हों। किसी श्रेष्ठ कर्म का चयन करने के पश्चात् यदि हम उसी मे उलझ जायँ तो वासनाक्षय के स्थान पर नवीन वासनाओं की निर्मिति की संभावना ही अधिक रहेगी। और तब हो सकता है कि कर्मों की थकान एवं विक्षेपों के कारण हम नीचे पशुत्व की श्रेणी में गिर सकते हैं।स्वप्न और अवबोध का सामान्य अर्थ क्रमश निद्रावस्था और जाग्रतअवस्था है। परन्तु इनमें एक अन्य गम्भीर अर्थ भी निहित है।उपनिषदों में पारमार्थिक सत्य के अज्ञान की अवस्था को निद्रा कहा गया है तथा उस अज्ञान के कारण प्रतीति और अनुभव में आनेवाली अवस्था को स्वप्न कहा गया है जिसमें हमारी जाग्रत अवस्था और स्वप्नावस्था दोनों ही सम्मिलित हैं। इस दृष्टि से वास्तविक अवबोध की स्थिति तो तत्त्व के यथार्थ ज्ञान की ही कही जा सकती है। अत इस श्लोक में कथित स्वप्न और अवबोध का अर्थ है जीव की जाग्रत अवस्था तथा ध्यानाभ्यास की अवस्था। इन दोनों में युक्त रहने का अर्थ यह होगा कि दैनिक कार्यकलापों में तो साधक को संयमित होना ही चाहिये तथा उसी प्रकार प्रारम्भ में ध्यानाभ्यास में भी मन को बलपूर्वक शान्त करके दीर्घ काल तक उस स्थिति में रहने का प्रयत्न्ा नहीं करना चाहिये। ऐसा करने से थकान के कारण ध्यान में मन की रुचि कम हो सकती है।समस्त दुखों का नाश करने की सार्मथ्य ध्यान योग में होने के कारण इसका नित्य अभ्यास करना चाहिए।कब यह साधक युक्त बन जाता है उत्तर है
English Translation By Swami Sivananda
6.17 Yoga becomes the destroyer of pain for him who is moderate in eating and recreation (such
as walking, etc.), who is moderate in exertion in actions, who is moderate in sleep and wakefulness.