Verse: 6,16
मूल श्लोक :
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।6.16।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।6.16।।हे अर्जुन यह योग न तो अधिक खानेवालेका और न बिलकुल न खानेवालेका तथा न अधिक सोनेवालेका और न बिलकुल न सोनेवालेका ही सिद्ध होता है।
।।6.16।। उपर्युक्त साधन और साध्य का विस्तृत विवरण जानकर यदि कोई व्यक्ति निर्दिष्ट साध्य की प्राप्ति में स्वयं को असमर्थ पाये तो कोई आश्चर्य नहीं । ऐसा भी नहीं कि साधक में इच्छा या प्रयत्न का अभाव हो फिर भी लक्ष्य प्राप्त करना उसे कठिन ही प्रतीत होता है। वह क्या कारण है जो अनजाने ही साधक को अपने साध्य से दूर ले जाता है कोई भी वैज्ञानिक सिद्धांत प्रयोग में सफलता के लिए सावधानियों को बताये बिना पूर्ण नहीं होता। अगले कुछ श्लोकों में ध्यानयोग के मार्ग में आने वाले सम्भावित गर्तों का संकेत किया गया है जिनसे साधक को बचने का प्रयत्न करना चाहिए।ध्यान की सफलता के लिए महत्त्व का नियम यह है कि अति सर्वत्र वर्जयेत् अर्थात् जीवन के कार्यों और उपभोगो में अतिरेक का त्याग करना चाहिए। परिमितता या संयम सफलता की कुन्जी है। असंयम से विक्षेप उत्पन्न होते हैं और संगठित व्यक्तित्व का सांमजस्य भंग हो जाता है। इसलिए आहार विहार और निद्रा में परिमितता का होना आवश्यक है।भगवान् कहते हैं कि अत्याधिक मात्रा में भोजन करने वाले या अति उपवास करने वाले व्यक्ति के लिए योग असाध्य है। यहाँ खाने का अर्थ केवल मुख के द्वारा अन्न भक्षण ही नहीं वरन् सभी इन्द्रियों के द्वारा किये जाने वाले विषय ग्रहण है। इस शब्द में समाविष्ट हैं विषय ग्रहण मन की भावनाएँ और बुद्धि के विचार।संक्षेप में योगाभ्यासी पुरुष के लिए नियम यह होना चाहिए कि केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए प्राणी जगत् का संहार किये बिना समयसमय पर जो कुछ प्राप्त होता है उसका ग्रहण या भक्षण केवल इतना ही करे कि पेट को भार न हो।यहाँ ठीक ही कहा गया है कि अत्याधिक निद्रा अथवा जागरण योग के अनुकूल नहीं है। यहाँ भी विवेकपूर्ण परिमितता ही नियम होना चाहिए। संभव है कि मन्दबुद्धि पुरुष इस श्लोक के तात्पर्य को न समझकर प्रश्न पूछे कि किस पुरुष के लिए योग सहज साध्य होता है इसके उत्तर में कहते हैं।
English Translation By Swami Sivananda
6.16 Verily Yoga is not possible for him who eats too much, nor for him who does not eat at all, nor for him who sleeps too much, nor for him who is (always) awake, O Arjuna.