Verse: 5,7
मूल श्लोक :
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।5.7।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।5.7।।जिसकी इन्द्रियाँ अपने वशमें हैं जिसका अन्तःकरण निर्मल है जिसका शरीर अपने वशमें है और सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्मा ही जिसकी आत्मा है ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
।।5.7।। पूर्व श्लोक में संक्षेप में वर्णन है कि कर्मयोग पालन करने पर चित्तशुद्धि प्राप्त होकर साधक ध्यानाभ्यास की सहायता से ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। वर्तमान की परिच्छिन्नता एवं बन्धनों को तोड़कर अनन्तस्वरूप की प्राप्ति के प्रयत्न में जो आन्तरिक परिवर्तन साधक में होता है उसका युक्तियुक्त विस्तृत विवेचन इस श्लोक में किया गया है।कर्मयोग से युक्त पुरुष अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त करता है जिसका अर्थ है अधिकसेअधिक मन की आन्तरिक शान्ति। मन का कमसेकम क्षुब्ध होना उसकी शुद्धि का द्योतक है। इसे ही दूसरे शब्दों में कहते हैं वासनाओं का क्षीण होना। विक्षेप की कारणरूप वासनाओं का क्षय होने पर स्वाभाविक रूप से वह पुरुष संतुलित बन जाता है।ऐसे शुद्धान्तकरण सम्पन्न कर्मयोगी के लिए इन्द्रियों पर संयम रखना बच्चों का खेल बन जाता है। वह स्वेच्छा से इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त कर सकता है और निवृत्त भी। जिस साधक को अपने शरीर मन एवं बुद्धि पर पूर्ण संयम है वह ध्यान की सर्वोच्च साधना के लिए योग्यतम है। निदिध्यासन में आने वाले मुख्य विघ्न ये ही हैं वैषयिक प्रवृत्ति मन के विक्षेप एवं अतृप्त इच्छाएं। एक बार इन शृंखलाओं को तोड़ देने पर ध्यान सहज और सुलभ बन जाता है फिर साधक को आत्मा का साक्षात् अनुभव तत्काल और उसकी सम्पूर्णता में होता है।आत्मानुभूति आंशिक रूप में नहीं हो सकती। यदि साधक केवल स्वयं को दिव्य और शुद्ध स्वरूप अनुभव करे और अन्यों को नहीं तो उसका अनुभव वास्तविक और प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। सम्यक् दर्शन को प्राप्त हुये पुरुष के लिए तो शुद्ध आत्मा सर्वत्र एवं समस्त कालों में व्याप्त है। इस आध्यात्मिक दृष्टि से जगत् को देखने पर उसे सर्वत्र सम्पूर्ण प्राणियों में नित्य आत्मा का ही दर्शन होता है। ऐसे ज्ञानी पुरुष को ही यहाँ सर्वभूतात्मभूतात्मा कहा गया है जिसका अर्थ है वह पुरुष जिसकी आत्मा ही सर्वभूतों की आत्मा है।जब एक तरंग अपने वास्तविक समुद्र स्वरूप को पहचान लेती है तब ज्ञान में स्थित उस तरंग के लिए कोई भी अन्य तरंग समुद्र से भिन्न नहीं हो सकती।आत्मानुभूति में स्थित हुआ पुरुष जब जगत् में कर्म करता है तब वे कर्म वासना के रूप में प्रतिफल उत्पन्न नहीं करते। कर्मफलों का बन्धन केवल अहंकार को ही हो सकता है और ज्ञानी पुरुष में उसी का अभाव होने के कारण कर्म उसे किस प्रकार लिप्त कर सकते हैं प्रवाहित जल पर लिखने के समान ही ज्ञानी पुरुष के कर्म उसके चित्त पर वासनाएँ नहीं उत्पन्न करते।भगवान् श्रीकृष्ण कर्मयोग के सिद्धान्त का पुनपुन प्रतिपादन करते हैं। इस श्लोक से भी स्पष्ट होता है कि अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर किये गये कर्मं ही वासना उत्पन्न करके बुद्धि की विवेकशक्ति को धूमिल कर देते हैं जिसके कारण मनुष्य को अपने स्वयंसिद्ध शुद्ध दिव्य स्वरूप का अनुभव नहीं हो पाता।सर्वव्यापी परमात्मा के अनुभव में स्थित सिद्ध पुरुष का जीवन की ओर देखने का क्या दृष्टिकोण होगा भगवान् कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
5.7 He who is devoted to the path of action, whose mind is ite pure, who has conered the self, who has subdued his senses and who realises his Self as the Self in all beings, though acting, is not tainted.