Verse: 5,24
मूल श्लोक :
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।5.24।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।5.24।।जो मनुष्य केवल परमात्मामें सुखवाला है और केवल परमात्मामें रमण करनेवाला है तथा जो केवल परमात्मामें ज्ञानवाला है वह ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करनेवाला सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होता है।
।।5.24।। सामान्यत मनुष्य तीन प्रकार के सुख जानता है शारीरिक उपभोगों का सुख तथा भावनाओं एवं विचारों का आनन्द। उपर्युक्त तीन श्लोकों से यह बात स्पष्ट होती है कि तत्त्ववित् पुरुष का आनन्द तो इनसे भिन्न स्वरूप में ही होता है। अत काम और क्रोध से मुक्त आत्मानन्द में स्थित पुरुष ही योगी है वही वास्तव में सुखी भी है।हम विश्वास नहीं कर पाते कि सामान्यतया सर्वविदित सुख के साधनों को त्यागने पर भी ज्ञानी की उपर्युक्त वर्णित स्थिति में कोई सुख या सन्तोष भी हो सकता है। सब प्रकार के भोजनों का त्याग करने पर भोजन का आनन्द कैसे प्राप्त हो सकता है यह भी बात तर्क और अनुभव के विरुद्ध है कि मनुष्य कभी अन्धकारमय शून्यावस्था मात्र से सन्तुष्ट हो सकता है। प्राणिमात्र दिनरात अपनेअपने कार्य क्षेत्रों में कार्यरत दिखाई देते हैं। किस वस्तु को प्राप्त करने के लिये उनका यह परिश्रम है उत्तर केवल एक है अधिकसेअधिक सुख और सन्तोष की प्राप्ति के लिए। सब दुखों के अभावमात्र की स्थिति भी जैसे निद्रावस्था आनन्द का शिखर नहीं कही जा सकती जिसे प्राप्त कर मनुष्य़ पूर्ण सन्तोष का अनुभव कर सकता है।इन कारणों से ज्ञानी के विषय में कहे हुये भगवान् के वचन को अतिशयोक्ति ही माना जायेगा। इस श्लोक में ऐसी ही विपरीत धारणा को दूर करने का प्रयत्न किया गया है। जब जीव मिथ्या और अनित्य वस्तुओं को त्यागकर आत्मस्वरूप को पहचानता है तब वह कोई शून्यावस्था नहीं बल्कि आत्मा के द्वारा आत्मा में ही आत्मानन्द की अनुभूति की स्थिति है।आध्यात्मिक साधना में उपदिष्ट विषयों से वैराग्य कोई दुख का कारण नहीं है वरन् उसके द्वारा साधक निश्चयात्मकरूप से सुखशान्ति प्राप्त करता है। यह स्वरूपानुभव का आन्तरिक आनन्द नित्य बना रहता है न कि वैषयिक सुखों के समान क्षणमात्र। आत्मोन्नति के मार्ग में अग्रसर साधक अन्तसुख और अन्तराराम बन जाता है। उसका आनन्द बाह्य विषय निरपेक्ष होता है। उसका हृदय सदैव चैतन्य के प्रकाश से आलोकित रहता है।आत्मानुभूति में स्थित यह पुरुष ब्रह्मवित् कहलाता है। ब्रह्म को जानकर वह स्वयं ब्रह्मस्वरूप बनकर परम मोक्ष को प्राप्त होता है।
English Translation By Swami Sivananda
5.24 He who is happy within, who rejoices within, and who is illuminated within, that Yogi attains absolute freedom or Moksha, himself becoming Brahman.