Verse: 5,2
मूल श्लोक :
श्री भगवानुवाचसंन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।5.2।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।5.2।।श्रीभगवान् बोले संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग दोनों ही कल्याण करनेवाले हैं। परन्तु उन दोनोंमें भी कर्मसंन्यास(सांख्ययोग)से कर्मयोग श्रेष्ठ है।
।।5.2।। अर्जुन के प्रश्न से श्रीकृष्ण समझ गये किस तुच्छ अज्ञान की स्थिति में अर्जुन पड़ा हुआ है। वह कर्मसंन्यास और कर्मयोग इन दो मार्गों को भिन्नभिन्न मानकर यह समझ रहा था कि वे साधक को दो भिन्न लक्ष्यों तक पहुँचाने के साधन थे।मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति निष्क्रियता की ओर होती है। यदि मनुष्यों को अपने स्वभाव पर छोड़ दिया जाय तो अधिकांश लोग केवल यही चाहेंगे कि जीवन में कमसेकम परिश्रम और अधिकसेअधिक आराम के साथ भोजन आदि प्राप्त हो जाय। इस अनुत्पादक अकर्मण्यता से उसे क्रियाशील बनाना उसके विकास की प्रथम अवस्था है। यह कार्य मनुष्य की सुप्त इच्छाओं को जगाने से सम्पादित किया जा सकता है। विकास की इस प्रथमावस्था में स्वार्थ से प्रेरित कर्म उसकी मानसिक एवं बौद्धिक शिथिलता को दूर करके उसे अत्यन्त क्रियाशील बना देते हैं।तदुपरान्त मनुष्य को क्रियाशील रहते हुये स्वार्थ का त्याग करने का उपदेश दिया जाता है। कुछ काल तक निष्काम भाव से ईश्वर की पूजा समझ कर जगत् की सेवा करने से उसे जो आनन्द प्राप्त होता है वही उसके लिए स्फूर्ति एवं प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। इसी भावना को कर्मयोग अथवा यज्ञ की भावना कहा गया है। कर्मयोग के पालन से वासनाओं का क्षय होकर साधक को मानो ध्यानरूप पंख प्राप्त हो जाते हैं जिनकी सहायता से वह शांति और आनन्द के आकाश मे ऊँचीऊँची उड़ाने भर सकता है। ध्यानाभ्यास का विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में किया गया है।उपर्युक्त विचार से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आत्मविकास के लिये तीन साधन हैं काम्य कर्म निष्काम कर्म तथा निदिध्यासन। पूर्व अध्यायों में कर्म योग का वर्णन हो चुका है और अगले अध्याय का विषय ध्यान योग है। अत इस अध्याय में अहंकार और स्वार्थ के परित्याग द्वारा कर्मों के संन्यास का निरूपण किया गया है।इस श्लोक में भगवान् ने कहा है कि कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनों ही कल्याणकारक हैं तथापि इन दोनों में कर्मयोग श्रेष्ठतर है। श्रीकृष्ण के इस कथन का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे कर्मयोग की अपेक्षा संन्यास को हीनतर बताते हैं। ऐसा समझना अपने अज्ञान का प्रदर्शन करना है अथवा अब तक किये भगवान् के उपदेश को ही नहीं समझना है। यहाँ संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ कहने के अभिप्राय को हमें समझना चाहिये। विकास की जिस अवस्था में अर्जुन था उसको तथा युद्ध की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अर्जुन के लिए संन्यास की अपेक्षा कर्म करने का उपदेश ही उपयुक्त था। अर्थ यह हुआ कि दोनों ही श्रेयष्कर होने पर भी विशेष परिस्थितियों को देखते हुये संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ कहा गया है। अधिकांश लोग अर्जुन के रोग से पीड़ित होते हैं उन सबके लिए कर्मयोग ही वासना क्षय का एकमात्र उपाय है। अत यहाँ कर्मयोग को श्रेष्ठ कहने के तात्पर्य को हमको ठीक से समझना चाहिए।ऐसा क्यों इस पर कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
5.2 The Blessed Lord said Renunciation and the Yoga of action both lead to the highest bliss; but of the two, the Yoga of action is superior to the renunciation of action.