Verse: 5,11
मूल श्लोक :
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये।।5.11।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।5.11।।कर्मयोगी आसक्तिका त्याग करके केवल (ममतारहित) इन्द्रियाँशरीरमनबुद्धिके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ही कर्म करते हैं।
।।5.11।। कर्मयोगी का प्रयत्न यह होता है कि अपने स्वरूप में ही रहकर स्वयं के अन्तर्बाह्य घटित हो रही घटनाओं को उनके साथ तादात्म्य किये बिना केवल साक्षी भाव से देखे। कुछ काल तक इसका अभ्यास करने पर उसे यह स्पष्टतया ज्ञात होगा कि समस्त कर्म उपाधियों के द्वारा किये जाते हैं और साक्षी के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। तथापि उसको इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह साक्षित्व अथवा साक्षी स्वयं पारमार्थिक सत्य नहीं है वरन् बुद्धि की खिड़की में से झांकता हुआ परम सत्य यह साक्षी है। हमारा अनुभव है कि हम स्वयं को कार्यरत देखते हैं तब हमें इस देखने वाले साक्षी का भी भान होता है। शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व वह है जो इस उपर्युक्त द्रष्टा को भी प्रकाशित करता है यह उपनिषदों की घोषणा है।यदि परम सत्य साक्षित्व से भी परे है तो कर्मयोगी को इस साक्षीभाव का अभ्यास क्यों करना चाहिये इसका उत्तर है आत्मविशुद्धये अर्थात् अन्तकरण की शुद्धि के लिए। साक्षीभाव से कर्म करने पर स्वाभाविक ही अहंकार का त्याग होकर पूर्व संचित वासनाओं का क्षय हो जायेगा। जितनी अधिक मात्रा में वासना निवृत्ति होगी उतना ही शुद्ध और स्थिर अन्तकरण होगा जिसमें परमात्मा की अनुभूति स्पष्ट रूप से होगी।निम्नलिखित कारण से भी कर्मयोगी अनासक्त भाव से कर्म करता है
English Translation By Swami Sivananda
5.11 Yogis, having abandoned attachment, perform actions only by the body, mind, intellect, and even by the senses, for the purification of the self.