Verse: 4,7
मूल श्लोक :
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।4.7।।हे भरतवंशी अर्जुन जबजब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है तबतब ही मैं अपनेआपको साकाररूपसे प्रकट करता हूँ।
।।4.7।। जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्कर्ष होता है तब ईश्वर अवतार लेते हैं। गीता के प्रथम अध्याय की प्रस्तावना में धर्म शब्द का अर्थ विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है। धर्म एक पवित्र सत्य है जिसके पालन से ही समाज धारणा सम्भव होती है। जब बहुसंख्यक लोग धर्म का पालन नहीं करते तब द्विपदपशुओं के समूह द्वारा यह जगत् जीत लिया जाता है उस समय परस्पर सहयोग और आनन्द से जीवन व्यतीत करते हुये सुखी परिवार दिखाई नहीं देते। मनुष्य को शोभा देने वाला उच्च जीवन भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। इतिहास के ऐसे काले युग में कोई महान् व्यक्ति समाज में आकर लोगों के जीवन और नैतिक मूल्यों का स्तर ऊँचा उठाने का प्रयत्न करता है। समाज में विद्यमान नैतिक मूल्यों को आगे बढ़ाने से ही यह कार्य सम्पादित नहीं होता वरन् साथसाथ दुष्टता का भी नाश अनिवार्य होता है।इस कार्य के लिये अनन्तस्वरूप परमात्मा कभीकभी देहादि उपाधियों को धारण करके पृथ्वी पर प्रगट होते हैं उस बड़ी सम्पत्ति के स्वामी के समान जो कभीकभी अपनी सम्पत्ति का निरीक्षण करने और उसे सुव्यवस्थित करने के लिये हाथ में अस्त्र आदि लेकर निकलता है। धूप में काम करते श्रमिकों के बीच वह खड़ा रहता है तथापि अपने स्वामित्व को नहीं भूलता। इसी प्रकार समस्त जगत् के अधिष्ठाता भगवान् शरीर धारण कर र्मत्य मानवों के अनैतिक जीवन के साथ निर्लिप्त रहते हुए उनको अधर्म से बाहर निकालकर धर्म मार्ग पर लाने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहते हैं।भगवान् के इस अवतरण में यहाँ एक बात स्पष्ट की गई है कि यद्यपि वे शरीर धारण करते हैं तथापि अपने स्वातन्त्र्य को नहीं खोते। उपाधियों में वे रहते हैं परन्तु उपाधियों के वे दास नहीं बन जाते।किस प्रयोजन के लिये
English Translation By Swami Sivananda
4.7 Whenever there is decline of righteousness, O Arjuna, and rise of unrighteousness, then I manifest Myself.