Verse: 4,39
मूल श्लोक :
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।4.39।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।4.39।।जो जितेन्द्रिय तथा साधनपरायण है ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञानको प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
।।4.39।। योग्यता के बिना किसी भी लक्ष्य की प्रप्ति नहीं होती। इस श्लोक में वर्णित आवश्यक गुणों को समझने से यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि अनेक वर्षों तक साधना करने पर भी कुछ साधक लक्ष्य तक क्यों नहीं पहुँच पाते हैं। श्रद्धा तत्परता (भक्ति) तथा इंद्रिय संयम ये वे तीन अत्यावश्यक गुण हैं जिनके द्वारा जीवत्व के बन्धनों से मुक्त होकर हम देवत्व को प्राप्त करने की आशा कर सकते हैं। परन्तु इन तीनों शब्दों के अर्थों के विषय में अनेक विपरीत धारणायें फैल गयी हैं।श्रद्धा अनेक पाखण्डी गुरु लोगों की धार्मिक भावनाओं का अनुचित लाभ उठाते हुये श्रद्धा शब्द की आड़ में विपुल धन अर्जित करते हैं। श्रद्धा शब्द का अर्थ अन्धविश्वास करके सामान्य भक्त जनों के बौद्धिक एवं मानसिक विकास की सर्वथा उपेक्षा कर दी जाती है। श्रद्धा का अर्थ यह नहीं है कि दैवी माने जाने वाली किसी घोषणा को बिना सोचे समझे वैसे ही स्वीकार कर लिया जाय।श्री शंकराचार्य के अनुसार श्रद्धा वह है जिसके द्वारा मनुष्य शास्त्र एवं आचार्य द्वारा दिये गये उपदेश से तत्त्व का यथावत् ज्ञान प्राप्त कर सकता है।तत्पर आत्मविकास के किसी भी मार्ग पर अग्रसर साधक के लिये आवश्यक है कि वह उस मार्ग की ओर पूर्ण ध्यान दे तथा मन में ईश्वर का स्मरण रखे। शास्त्रों का केवल बौद्धिक अध्ययन हमें अन्तकरण शुद्धि प्रदान नहीं कर सकता। मन और बुद्धि को संगठित करके उपनिषदों में उपदिष्ट जीवन जीना चाहिये।जितेन्द्रिय आत्मसंयम के बिना श्रद्धा और ज्ञान में दृढ़ता आनी कठिन है। इन्द्रियां ही हमें विषयों की ओर आकर्षित करके खींच ले जाती हैं। एक बार वैषयिक उपभोगों में आसक्त हो जाने पर जीवन के उच्च मूल्यों को बनाये रखना संभव नहीं होता। दिव्य मार्ग पर चलने का अर्थ है विषयोपभोग की नालियों से बाहर निकल जाना। ये दोनों प्रकार के जीवन परस्पर विरोधी हैं। एक की उपस्थिति में दूसरे का अभाव होता है। जहाँ हृदय में शान्ति के प्रकाश का उदय हुआ वहाँ वैषयिक और पाशविक प्रवृत्तियों से उत्पन्न क्षोभ का अन्धकार नष्ट हो जाता है अस्तु साधक के लिये आत्मसंयम का जीवन अनिवार्य हो जाता है।विषय सुख का त्याग कर स्वयं में तथा शास्त्रों में विश्वास रखते हुए दिव्य लक्ष्य को ही प्राप्त करने का प्रयत्न क्यों करना चाहिये साधना की प्रारम्भिक अवस्था में साधक बुद्धि के स्तर पर ही रहता है और बुद्धि का कार्य प्रत्येक वस्तु के कारण की खोज करना है। स्वाभाविक है कि विचारशील पुरुष के मन में प्रश्न उठेगा कि आखिर विषय सुख के त्य़ाग का फल क्या होगा दूसरी पंक्ति में इसका उत्तर दिया गया है।उपनिषदों के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों का यह निश्चयात्मक आश्वासन है कि श्रद्धावान तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष आत्मज्ञान को प्राप्त करता है। यहां भगवान् कहते हैं कि इस ज्ञान का फल है परम शान्ति। पूर्व श्लोक के समान यहां भी इस शान्ति को प्राप्त करने का निश्चित समय नहीं बताया गया क्योंकि वह साधक के प्रयत्न पर निर्भर करता है। परन्तु यह निश्चित है कि ज्ञान को प्राप्त कर शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है।परमशान्ति परम का अर्थ है अनन्त। अत परम शान्ति वह है जो कभी क्षीण नहीं होती। आज के युग में जहां शान्ति के नाम पर युद्ध होते रहते हैं वहां इस श्लोक में निर्दिष्ट शान्ति को भी कोई व्यक्ति शंका की दृष्टि से देखे तो कोई आश्चर्य नहीं। समयसमय पर शान्ति वार्ता करने वाले राजनीतिज्ञों की यह शान्ति नहीं है वरन् मनोविज्ञान की दृष्टि से इसका गंभीर अर्थ है।यह एक सुविदित तथ्य है कि प्रत्येक प्राणी जीवन पर्यन्त प्रति क्षण अधिकाधिक सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहता है। श्वसन तथा भोजन से लेकर युद्ध और नाश के द्वारा सम्पूर्ण विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने के सुनियोजित प्रयत्नों तक प्रत्येक मनुष्य का ध्येय सुख प्राप्ति ही है। केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु एवं वनस्पति भी इसी के लिये कार्यरत रहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सुख प्राप्ति की आन्तरिक प्रेरणा के बिना कोई भी कर्म संभव नहीं हो सकता।इस प्रकार यदि जगत् में सभी प्राणी अधिकसेअधिक सुख पाने तथा उसके रक्षण के लिये प्रयत्नशील रहते हैं तब जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य शाश्वत सुख अनन्त आनन्द ही होना चाहिये ऐसा आनन्द कि जहां सब संघर्ष समाप्त हो जाते हैं सब इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं और मन के सभी विक्षेपों का सदा के लिये अन्त हो जाता है। सुख की कामना के कारण ही मन में विक्षेप उत्पन्न होते हैं तथा मनुष्य शरीर द्वारा बाह्य जगत् में कर्म करता है। पारमार्थिक शाश्वत आनन्द के प्राप्त होने पर मन के विक्षेप तथा शारीरिक शिथिलता दोनों का ही कष्ट समाप्त हो जाता है। इसलिये परम शान्ति का अर्थ है परम आनन्द। यही हमारे जीवन का वास्तविक लक्ष्य है।इस विषय में संशय नहीं करना चाहिये क्योंकि संशय बड़ा पापिष्ठ है। कैसे सुनो
English Translation By Swami Sivananda
4.39 The man who is full of faith, who is devoted to it, and who has subdued the senses obtains (this) knowledge; and having obtained the knowledge he attains at once to the supreme peace.