Verse: 4,35
मूल श्लोक :
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।4.35।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।4.35।।जिस(तत्त्वज्ञान) का अनुभव करनेके बाद तू फिर इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा और हे अर्जुन जिस(तत्त्वज्ञान)से तू सम्पूर्ण प्राणियोंको निःशेषभावसे पहले अपनेमें और उसके बाद मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा।
।।4.35।। इस प्रकरण के संदर्भ किसी के मन में यह शंका उठ सकती है कि इतना अधिक परिश्रम करके ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है परन्तु हो सकता है कि मृत्यु के पश्चात् फिर हम उसी अज्ञान अवस्था को पुन प्राप्त हो जायें। अपने एक ही जीवन में हम अनेक प्रकार के ज्ञान प्राप्त करते हैं लेकिन सब का ही हमें स्मरण नहीं रहता। इसी प्रकार आत्मज्ञान को भी प्राप्त करके यदि उसका विस्मरण हो जाता है तब तो वास्तव में बड़ी ही हानि होगी।इस प्रकार की शंका का निवारण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण निश्चयपूर्वक कहते हैं इसे जानकर पुन तुम मोह को प्राप्त नहीं होगे। किसी कट्टरवादी की अत्युत्साही शैली की भाँति प्रतीत होने वाला यह कथन है तथापि विचार की प्रारम्भिक अवस्था में इसे इसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये। सभी आचार्य इस विषय पर एकमत हैं और चूँकि अपनी पीढ़ी की वंचना करने में उनका कोई स्वार्थ नहीं हो सकता इसलिये उनके मत को विश्वासपूर्वक स्वीकार करने में ही बुद्धिमानी है। इस श्रद्धा की आवश्यकता तब तक ही है जब तक हम स्वयं आत्मा का साक्षात् अनुभव नहीं कर लेते। वैवाहिक जीवन का आनन्द एक बालक नहीं समझ सकता। इसी प्रकार अज्ञान अव्ास्था में शोक मोह से ग्रस्त हम लोग भी देशकालातीत आत्मतत्त्व की अनुभूति के आनन्द को नहीं समझ सकते। गुरु चाहे जितना ही वर्णन क्यों न करें परन्तु आन्तरिक परिपक्वता प्राप्त किए बिना उनके वाक्यों के लक्ष्यार्थ को हम यथार्थरूप में ग्रहण नहीं कर सकेंगे।आत्मानुभूति का लक्षण बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं आत्मा की पहचान होने पर बाह्य विषयों भावनाओं एवं विचारों की सम्पूर्ण सृष्टि आत्मा में ही प्रतीत होगी और वह आत्मा ही श्रीकृष्ण परमात्मा का स्वरूप है। एक बार समुद्र की पहचान हो जाने पर उस मनुष्य के लिए सम्पूर्ण लहरें समुद्ररूप ही हो जाती हैं।पूर्व श्लोकों में वर्णित ज्ञान के साक्षात्कार के लक्षण इस श्लोक में बताये गये हैं। यहाँ स्पष्ट हो जाता हैं कि शिष्य को गुरु के सानिध्य की आवश्यकता तभी तक रहती है जब तक वह समस्त सृष्टि को परमात्मा से अभिन्न आत्मस्वरूप में अनुभव नहीं कर लेता।इस ज्ञान का महात्म्य देखिये कि
English Translation By Swami Sivananda
4.35 Knowing ï1thatï1 thou shalt not, O Arjuna, again get deluded like this; and by that thou shalt see all beings in thy Self and also in Me.