Verse: 4,31
मूल श्लोक :
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतो़ऽन्यः कुरुसत्तम।।4.31।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।4.31।।हे कुरुवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करनेवाले मनुष्यके लिये यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा
।।4.31।। प्राचीनकाल में यज्ञकर्म में अग्नि की आहुति देने के पश्चात् जो कुछ अवशिष्ट रह जाता था उसे ही अमृत कहते थे जिसका सेवन भक्तगण ईश्वर का प्रसाद समझकर करते थे। उनका यह विश्वास था कि भक्तिपूर्वक इस अमृतसेवन से अन्तकरण की शुद्धि हो सकती है।इस रूपक के आध्यात्मिक लक्ष्यार्थ पर विचार करने पर ज्ञात होगा कि अवशिष्ट अमृत का अभिप्राय उपर्युक्त यज्ञों के आचरण से प्राप्त फल से है। इन यज्ञों के आचरण का फल है आत्मसंयम अथवा दूसरे शब्दों में संगठित व्यक्तित्व। इस फल को प्राप्त पुरुष ही ध्यानाभ्यास के योग्य होते हैं।संगठित व्यक्तित्व का पुरुष ही ध्यान के लिये आवश्यक मन के समत्व को प्राप्त करके अनन्तस्वरूप ब्रह्म को आत्मरूप से पहचान सकता है। इस श्लोक की दूसरी पंक्ति निषेध की भाषा में उपर्युक्त सिद्धांत को और अधिक स्पष्ट करती है। पुरुषार्थ के बिना आत्मविकास नहीं हो सकता। अकर्मण्यता से कोई किसी भी क्षेत्र में लाभान्वित नहीं हो सकता। निस्वार्थ कर्म के बिना जब इस लोक में ही कोई शाश्वत फल नहीं प्राप्त होता तब परलोक के सम्बन्ध में क्या कर सकता है इस स्थान पर दो शंकाएं मन में उठ सकती हैं। क्या ये सभी मार्ग एक ही लक्ष्य तक पहुँचाते हैं अथवा विभिन्न लक्ष्यों तक तथा दूसरी शंका यह हो सकती है कि क्या ये सब मार्ग भगवान् के बौद्धिक विचार मात्र तो नहीं हैं भगवान् इन शंकाओं का निराकरण करते हुए कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
4.31 Those who eat the remnants of the sacrifice, which are like nectar, go to the eternal Brahman. This world is not for the man who does not perform sacrifice; how then can he have the other, O Arjuna?