Verse: 4,27
मूल श्लोक :
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।।4.27।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।4.27।।अन्य योगीलोग सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी क्रियाओंको और प्राणोंकी क्रियाओंको ज्ञानसे प्रकाशित आत्मसंयमयोगरूप अग्निमें हवन किया करते हैं।
।।4.27।। दिव्य सत्य के ज्ञान के द्वारा अहंकार को संयमित करने को यहां आत्मसंयम योग कहा गया है।आत्मानात्मविवेक के द्वारा परिच्छिन्न संसारी अहंकार से अपरिच्छिन्न आनन्दस्वरूप आत्मा को विलग करके उसमें ही दृढ़ स्थिति प्राप्त करने के अभ्यास का अर्थ ही आत्मा के द्वारा अहंकार को संयमित करना है। इसे ही आत्मसंयम कहते हैं। इस साधना के द्वारा कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के अनियन्त्रित व्यापार को नियन्त्रित किया जा सकता है।इस प्रकार पांच यज्ञों का वर्णन करने के पश्चात् भगवान् अगले श्लोक में पाँच और साधनाएँ बताते हैं मानो वे अर्जुन को यह समझाना चाहते हों कि इस प्रकार की सैकड़ो साधनाएं बतायी जा सकती हैं।
English Translation By Swami Sivananda
4.27 Others again sacrifice all the functions of the senses and those of the breath (vital energy or Prana) in the fire of the Yoga of self-restraint kindled by knowledge.