Verse: 4,25
मूल श्लोक :
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।4.25।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।4.25।।अन्य योगीलोग भगवदर्पणरूप यज्ञका ही अनुष्ठान करते हैं और दूसरे योगीलोग ब्रह्मरूप अग्निमें विचाररूप यज्ञके द्वारा ही जीवात्मारूप यज्ञका हवन करते हैं।
।।4.25।। जगत् में कार्य करते हुए ज्ञानी पुरुष के हृदय के भाव को ही कुछ श्लोकों में बताया गया है। साधक के मन में एक शंका सदैव उठती है कि ध्यानावस्था में बुद्धि से भी परे अर्थात् उसकी द्रष्टा आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है परन्तु कुछ काल के लिये ही। गौतम बुद्ध जैसे कुछ महापुरुषों को हम कार्य में अत्याधिक व्यस्त देखते हैं जबकि कोई महात्मा एक स्थान पर ही रहकर अपने सीमित क्षेत्र में कार्य करते देखे जाते हैं जैसे भगवान् रमण महर्षि। कुछ अन्य सन्त सामान्य जीवन ही व्यतीत करते हैं। साधक को यह जानने की उत्सुकता रहती है कि जगत् में अनेक वस्तुओं के सम्पर्क में आने पर ज्ञानी पुरुष के मन की क्या भावना होती है।जो पुरुष सभी उपलब्ध साधनों के उपयोग से अपने आपको शारीरिक मानसिक एवं बौद्धिक अपूर्णताओं दुर्बलताओं से ऊँचा उठाने का सतत् प्रयत्न करता है वह योगी कहलाता है। इस दृष्टि से इस श्लोक के केवल सामान्य अर्थ को ही ग्रहण करना उचित नहीं होगा।जो प्रकाशरूप है उसे कहते हैं देव। अध्यात्म की दृष्टि से ये देव पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन इन्द्रियों के द्वारा शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध ये पाँच विषय प्रकाशित किये जाते हैं। साधक तथा सिद्ध पुरुष भी इन्द्रियों के माध्यम से ही विषय ग्रहण करते हैं परन्तु उनकी दृष्टि में यह भी एक यज्ञ है जिसमें विषयों की आहुतियाँ इन्द्रियरूप देवों को दी जारही हैं। अज्ञानी के लिये जो विषयग्रहण की क्रिया मात्र है वही ज्ञानियों की दृष्टि से विषयों की इन्द्रियों के प्रति भक्ति की साधना है।यज्ञ की भावना बनाये रखने से साधक को धीरेधीरे उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट सभी प्रकार के इन्द्रियोपभोगों से वैराग्य हो जाता है जो आन्तरिक समता बनाये रखने में सहायक होता है।देवयज्ञ के वर्णन के बाद श्रीकृष्ण कहते हैं अन्य लोग ब्रह्मयज्ञ करते हैं जिसमें ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ (आत्मा) के द्वारा यज्ञ का (आत्मा का) हवन करते हैं। अध्यात्म की दृष्टि से विचार करने पर इस कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। जब तक हम शरीर धारण किये हुए इस जगत् में रहते हैं तब तक विषयों के साथ हमारा सम्पर्क अवश्य रहता है। परन्तु हमें जो सुखदुख का अनुभव होता है वह बाह्य जगत् के कारण नहीं वरन् हमारे विषयों के प्रति रागद्वेष के कारण होता है। विषयों में स्वयं सुख या दुख देने की क्षमता नहीं है।ज्ञानी पुरुष जानते हैं कि इन्द्रियाँ विषय ग्रहण की साधन मात्र हैं और वे केवल चैतन्य आत्मा के सानिध्य से ही कार्य कर सकती हैं। इस ज्ञान के कारण वे इन्द्रियों की ब्रह्मज्ञान की अग्नि में स्वयं ही आहुति देते हैं। यहाँ साधकों को उपदेश हैं कि वे अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का उपयोग स्वार्थ के लिये न करके जगत् की सेवार्थ करें इससे वे जगत् में रहकर कार्य करते हुए भी विषयासक्ति के बन्धन में नहीं पड़ सकते।अगले श्लोक में भगवान् दो प्रकार के यज्ञ बताते हैं
English Translation By Swami Sivananda
4.25 Some Yogies perform sacrifice to the gods alone; while others (who have realised the Self) offer the self as sacrifice by the Self in the fire of Brahman alone.