Verse: 4,13
मूल श्लोक :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।4.13 4.14।।मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। उस(सृष्टिरचना आदि) का कर्ता होनेपर भी मुझ अव्यय परमेश्वरको तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता।
।।4.13।। कुछ काल से इस श्लोक का अत्यन्त दुरुपयोग करके इसे विवादास्पद विषय बना दिया गया है। वर्ण शब्द का अर्थ है रंग। योगशास्त्र में प्रकृति के तीन गुणों सत्त्व रज और तम को तीन रंगों से सूचित किया जाता है। जैसाकि पहले बता चुके हैं इन तीन गुणों का अर्थ है मनुष्य के विभिन्न प्रकार के स्वभाव। सत्त्व रज और तम का संकेत क्रमश श्वेत रक्त और कृष्ण वर्णों से किया जाता है। मनुष्य अपने मन में उठने वाले विचारों के अनुरूप ही होता है। दो व्यक्तियों के विचारों में कुछ साम्य होने पर भी दोनों के स्वभाव में सूक्ष्म अन्तर देखा जा सकता है।इन स्वभावों की भिन्नता के आधार पर अध्यात्म की दृष्टि से अध्ययन करने के लिए मनुष्यों का चार भागों में वर्गीकरण किया जाता है इसको ही वर्ण कहते हैं। जैसे किसी बड़े नगर अथवा राज्य में व्यवसाय की दृष्टि से लोगों का वर्गीकरण चिकित्सक वकील प्राध्यापक व्यापारी राजनीतिज्ञ ताँगा चालक आदि के रूप में करते हैं उसी प्रकार विचारों के भेद के आधार पर प्राचीन काल में मनुष्यों को वर्गीकृत किया जाता था। किसी राज्य के लिये चिकित्सक और तांगा चालक उतने ही महत्व के हैं जितने कि वकील और यान्त्रिक। इसी प्रकार स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिये भी इन चारों वर्णों अथवा जातियों को आपस में प्रतियोगी बनकर नहीं वरन् परस्पर सहयोगी बनकर रहना चाहिये। एक वर्ण दूसरे का पूरक होने के कारण आपस में द्वेषजन्य प्रतियोगिता का कोई प्रश्न ही नहीं होना चाहिये।तदोपरान्त भारत में मध्य युग की सत्ता लोलुपता के कारण साम्प्रदायिकता की भावना उभरने लगी जिसने आज अत्यन्य कुरूप और भयंकर रूप धारण कर लिया है। उस काल में शास्त्रीय विषयों में सामान्य जनों के अज्ञान का लाभ उठाते हुए अर्धपण्डितों ने शास्त्रों के कुछ अंशों को बिना किसी सन्दर्भ के उद्घृत करते हुए अपने ज्ञान का प्रदर्शन करना प्रारम्भ कर दिया।हिन्दुओं के पतनोन्मुखी काल में ब्राह्मण वर्ग को इस श्लोक की प्रथम पंक्ति का अर्ध भाग अत्यन्त अनुकूल लगा और वे इसे दोहराने लगे मैंने चातुर्र्वण्य की रचना की। इसका उदाहरण देदेकर समाज के वर्तमान दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन को दैवी प्रमाणित करने का प्रयत्न किया गया। जिन लोगों ने ऐसे प्रयत्न किये उन्हें ही हिन्दू धर्म का विरोधी समझना चाहिये। वेदव्यासजी ने इसी श्लोक की प्रथम पंक्ति में ही इसी प्रकार के वर्गीकरण का आधार भी बताया कि गुणकर्म विभागश अर्थात् गुण और कर्मों के विभाग से चातुर्र्वण्य बनाया हुआ है।वर्ण शब्द की यह सम्पूर्ण परिभाषा न केवल हमारी वर्तमान विपरीत धारणा को ही दूर करती है बल्कि उसे यथार्थ रूप में समझने में भी सहायता करती है। जन्म से कोई व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता। शुभ संकल्पों एवं श्रेष्ठ विचारों के द्वारा ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया जा सकता है। केवल शरीर पर तिलक चन्दन आदि लगाने से अथवा कुछ धार्मिक विधियों के पालन मात्र से हम ब्राह्मण होने का दावा नहीं कर सकते। परिभाषा के अनुसार उसके विचारों एवं कर्मों का सात्त्विक होना अनिवार्य है। रजोगुणप्रधान विचारों तथा कर्मों का व्यक्ति क्षत्रिय कहलाता है। जिसके केवल विचार ही तामसिक नहीं बल्कि जो अत्यन्त निम्न स्तर का जीवन शारीरिक सुखों के लिय्ो ही जीता है उस पुरुष को शूद्र समझना चाहिये। गुण और कर्म के आधार पर किये गये इस वर्गीकरण से इस परिभाषा की वैज्ञानिकता सिद्ध होती है।सत्त्व (ज्ञान) रज (क्रिया) और तम (जड़त्व) इन तीन गुणों से युक्त है जड़ प्रकृति अथवा माया। चैतन्य स्वरूप आत्मा के इसमें व्यक्त होने पर ही सृष्टि उत्पन्न होकर उसमें ज्ञान क्रिया रूप व्यवहार सम्भव होता है। उसके बिना जगत् व्यवहार संभव ही नहीं हो सकता। इस चैतन्य स्वरूप के साथ तादात्म्य करके श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे चातुर्र्वण्यादि के कर्ता हैं क्योंकि उसके बिना जगत् का कोई अस्तित्व नहीं है और न कोई क्रिया संभव है। जैसे समुद्र तरंगों लहरों फेन आदि का कर्त्ता है अथवा स्वर्ण सब आभूषणों का कर्त्ता है वैसे ही भगवान् का कर्तृत्व भी समझना चाहिये।इसी श्लोक में भगवान् स्वयं को कर्त्ता कहते हैं परन्तु दूसरे ही क्षण कहते हैं कि वास्तव में वे अकर्त्ता हैं। कारण यह है कि अनन्त सर्वव्यापी चैतन्य आत्मा में किसी प्रकार की क्रिया नहीं हो सकती। देशकाल से परिच्छिन्न वस्तु ही क्रिया कर सकती हैं। आत्मस्वरूप की दृष्टि से भगवान् अकर्त्ता ही है।शास्त्रों की अध्ययन प्रणाली से अनभिज्ञ विद्यार्थियों को वेदान्त के ये परस्पर विरोधी वाक्य भ्रमित करने वाले होते हैं। परन्तु हम अपने दैनिक संभाषण में भी इस प्रकार के वाक्य बोलते हैं और फिर भी उसके तात्पर्य को समझ लेते हैं। जैसे हम कहते हैं कार मे बैठकर मैं गन्तव्य तक पहुँचा। अब यह तो सपष्ट है कि बैठने से मैं अन्य स्थान पर कभी नहीं पहुँच सकता तथापि कोई अन्य व्यक्ति हमारे वाक्य की अधिक छानबीन नहीं करता। इस प्रकार के वाक्यों में कार की गति का आरोप बैठे यात्री पर किया जाता है। वह अपनी दृष्टि से तो स्थिर बैठा है परन्तु वाहन की दृष्टि से गतिमान् प्रतीत होता है। इसी प्रकार विभिन्न स्वभावों की उत्पत्ति मन्ा और बुद्धि का धर्म है फिर भी उसका आरोप चैतन्य आत्मा पर करके उसे ही कर्त्ता कहते हैं किन्तु स्वस्वरूप से सर्वव्यापी अविकारी आत्मा अकर्त्ता ही है।वास्तव में मैं अकर्त्ता हूँ इसलिये
English Translation By Swami Sivananda
4.13 The fourfold caste has been created by Me according to the differentiation of Guna and Karma; though I am the author thereof know Me as non-doer and immutable.