Verse: 3,5
मूल श्लोक :
न हि कश्िचत्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।3.5।।कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता क्योंकि (प्रकृतिके) परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं।
।।3.5।। प्रकृति के सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों के प्रभाव में मनुष्य सदैव रहता है। क्षणमात्र भी पूर्णरूप से निष्क्रिय होकर वह नहीं रह सकता। निष्क्रियता जड़ पदार्थ का धर्म है। शरीर से कोई कर्म न करने पर भी हम मन और बुद्धि से क्रियाशील रहते ही हैं। विचार क्रिया केवल निद्रावस्था में लीन हो जाती है। जब तक हम इन गुणों के प्रभाव में रहते हैं तब तक कर्म करने के लिए हम विवश होते हैं।इसलिए कर्म का सर्वथा त्याग करना प्रकृति के नियम के विरुद्ध होने के कारण असम्भव है। शारीरिक कर्म न करने पर भी मनुष्य व्यर्थ के विचारों में मन की शक्ति को गँवाता है। अत गीता का उपदेश है कि मनुष्य शरीर से तो कर्म करे परन्तु समर्पण की भावना से इससे शक्ति के अपव्यय से बचाव होने के साथसाथ उसके व्यक्तित्व का भी विकास होता है।आत्मस्वरूप को नहीं जानने वाले पुरुष के लिए कर्तव्य का त्याग उचित नहीं है।भगवान् कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
3.5 Verily none can ever remain for even a moment without performing action; for everyone is made to act helplessly indeed by the alities born of Nature.