Verse: 3,15
मूल श्लोक :
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।3.15।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।3.14 3.15।।सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षासे होता है। वर्षा यज्ञसे होती है। यज्ञ कर्मोंसे निष्पन्न होता है। कर्मोंको तू वेदसे उत्पन्न जान और वेदको अक्षरब्रह्मसे प्रकट हुआ जान। इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्यकर्म) में नित्य प्रतिष्ठित है।
।।3.15।। विश्व में चल रहे सामूहिक यज्ञ कर्म के चक्र का वेदों की परिचित भाषा में यहाँ वर्णन किया गया है। प्राणियों की उत्पत्ति एवं पोषण का कारण अन्न है। पृथ्वी में स्थित खनिज सम्पत्ति पोषक अन्न का रूप तभी लेती है जब जल वृष्टि होती है। वर्षा के बिना न तो वनस्पति जीवन की वृद्धि होगी और न पशुओं का जीवन ही सम्भव होगा। यज्ञ के फलस्वरूप वर्षा होती है तथा यज्ञ का सम्पादन मनुष्य के कर्मों द्वारा होता है।सूक्ष्म विचार के अभाव में यह श्लोक विचित्र ही प्रतीत होता है। आधुनिक शिक्षित व्यक्ति अन्न (पदार्थ) से प्राणियों की तथा वर्षा से पोषक अन्न की उत्पत्ति होने को तो समझ पाता है परन्तु उसे यह समझने में कठिनाई होती है कि यज्ञ से वर्षा की उत्पत्ति किस प्रकार होती है।भगवान् श्रीकृष्ण के शब्दों में हम यह मानने को बाध्य नहीं हैं कि वे अर्जुन को कर्मकाण्ड के अनुष्ठान का उपदेश दे रहे हैं। गीता में अनेक स्थानों पर वेद काल में प्रचलित और परिचित शब्दों को नये अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। यहाँ भी पर्जन्य से केवल जलवृष्टि ही समझना उचित नहीं। पर्जन्य से तात्पर्य उस स्थिति से है जो पृथ्वी में स्थित तत्त्वों का भक्षण योग्य पोषक अन्न में रूपान्तर करने के लिए आवश्यक है। इसी प्रकार प्रत्येक कार्य क्षेत्र में उपभोग्य लाभ (अन्न) विद्यमान होता है जिसकी प्राप्ति तभी संभव है जब उसके अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। इस प्रकार की अनुकूल परिस्थिति (पर्जन्य) का निर्माण सब लोगों के निस्वार्थ सेवाभाव से किये गये कर्मोंे (यज्ञ) से ही संभव होकर समाज के उपभोग्य वस्तुओं (अन्न) की उत्पत्ति होती है।उदाहरणार्थ नदी के व्यर्थ ही बहते हुये पानी को रोक कर बांध के निर्माण से उसका उपयोग नदी के तट की उपजाऊ किन्तु अब तक नहीं जोती गई भूमि की सिंचाई के लिये किया जा सकता है। त्याग और परिश्रम से ही बांध का निर्माण संभव होगा। उसके पूर्ण होने पर नदी के दोनों किनारों की भूमि को जोतने के लिये अनुकूल परिस्थिति बन जायेगी। सींची हुई भूमि से अन्न प्राप्त करने के लिये निरन्तर परिश्रम की आवश्यकता है जैस भूमि जोतना बीजारोपण सिंचन और रक्षण आदि।यहाँ हमें बताया गया है कि इस कर्म चक्र का सम्बन्ध परम सत्य (ब्रह्म) से किस प्रकार है और कैसे वह ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है। सम्यक् कर्म का सिद्धांत (यज्ञ) तथा कर्म की क्षमता भी सृष्टिकर्त्ता ब्रह्माजी से ही सबको प्राप्त हुई और स्वयं ब्रह्माजी अक्षरअविनाशी परम तत्त्व ब्रह्म से ही प्रगट हुये हैं। नवजात शिशु में कर्म की क्षमता है और वह क्षमता सृष्टिकर्त्ता का दिया हुआ उपहार है इसलिये सर्वगत ब्रह्म सदैव व्यक्ति के अथवा समूह के उन कर्मों में (यज्ञ) प्रतिष्ठित है जो विश्व के कल्याण के लिये सेवाभाव से किये गये हों।इस कर्मचक्र का पालन करने वाला पुरुष प्रकृति के सामंजस्य में अपना योगदान देता है। इसका उल्लंघन करने वाले के विषय में भगवान् कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
3.15 Know thou that action comes from Brahma and Brahma comes from the Imperishable. Therefore, the all-pervading (Brahma) ever rests in sacrifice.