Verse: 2,67
मूल श्लोक :
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।2.67।।अपनेअपने विषयोंमें विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे एक ही इन्द्रिय जिस मनको अपना अनुगामी बना लेती है वह अकेला मन जलमें नौकाको वायुकी तरह बुद्धिको हर लेता है।
।।2.67।। नाव के नाविक की मृत्यु हो गयी हो और उसके पाल खुले हों तब वह नाव पूरी तरह उन्मत्त तूफानों और उद्दाम तरंगों की दया पर आश्रित होगी। विक्षुब्ध तरंगों के भयंकर थपेड़ों से इधरउधर भटकती हुई वह लक्ष्य को प्राप्त किये बिना बीच में ही नष्ट हो जायेगी। इसी प्रकार संयमरहित पुरुष की इन्द्रियाँ भी विषयों में विचरण करती हुई मन को वासनाओं की अंधीआंधी में भटकाकर विनष्ट कर देती हैं। अत यदि मनुष्य अर्थपूर्ण जीवन जीना चाहता है तो उसे अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखने का सतत प्रयत्न करते रहना चाहिए।62वें श्लोक से प्रारम्भ किये मनुष्य के पतन के विषय का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
2.67 For the mind, which follows in the wake of the wandering senses, carries away his discrimination, as the wind (carries away) a boat on the waters.