Verse: 2,61
मूल श्लोक :
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.61।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।2.61।।कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके मेरे परायण होकर बैठे क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।
।।2.61।। अध्यात्म साम्राज्य के सम्राट आत्मा के पतन का मूल कारण ये इन्द्रियां ही हैं। अर्जुन को यहां सावधान किया गया है कि वह पूर्णत्व प्राप्ति के लिये इन्द्रियों और विषयों के अनियन्त्रित एवं उन्मुक्त विचरण के प्रति सतत सजग रहे। आधुनिक मनोविज्ञान गीता के इस उपदेश पर नाकभौं सिकोड़ेगा क्योंकि जर्मन मनोवैज्ञानिक सिगमण्ड फ्रायड के अनुसार वासनायें मनुष्य की स्वाभाविक मूल प्रवृत्ति हैं और उनके संयमित करने का अर्थ है उनका अप्राकृतिक दमन।पाश्चात्य देशों में संयम का अर्थ दमन समझा जाता है और मन के स्वास्थ्य की दृष्टि से दमन को कोई भी स्वीकार नहीं करेगा। परन्तु वैदिक दर्शन में कहीं भी दमन का उपदेश नहीं दिया गया। वहाँ तो बुद्धि की उस परिपक्वता पर बल दिया गया है जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व खिल उठे और श्रेष्ठ वस्तुओं की प्राप्ति से निकृष्ट की इच्छा अपने आप ही छूट जाये। वहाँ इच्छाओं का दमन नहीं वरन् उनसे ऊपर उठने को कहा गया है।भगवान् श्रीकृष्ण इस वैदिक सिद्धांत को यहां अत्यन्त सुन्दर ढंग से स्पष्ट करते हैं। वे आत्म विकास की साधना के विधेयात्मक (जो करना चाहिये) और निषेधात्मक (जो त्यागना चाहिये) दोनों पक्षों पर प्रकाश डालते हैं। आत्मविकास के जो प्रतिकूल भोग और कर्म हैं उन्हें त्यागकर अनुकूल साधना का अभ्यास करना चाहिये। विधेयात्मक साधना में भगवान् शिष्य को मत्पर होने का उपदेश देते हैं। मत्पर का अर्थ हैजो मुझ परमात्मा को ही जीवन का परम लक्ष्य समझता है।युक्त आसीत मत्पर इस अर्ध पंक्ति में ही गीता द्वारा आत्मविकास की पूर्ण साधना बतायी गयी है। मनुष्य को पशु के स्तर पर ले जाने वाली अनैतिक एवं कामुक प्रवृत्तियां उसके असंख्य जन्मजन्मान्तरों में किये विषयोपभोग और उनसे अर्जित वासनाओं का ही परिणाम है। एक जीवन में ही उन सबको नष्ट करना अथवा उनके परे जाना मनुष्य के लिये कदापि संभव नहीं। नैतिकता के उन्नायकों आदर्श शिक्षकों और अध्यात्म के साधकों की निराशा का भी यही एक कारण है।इन वैषयिक प्रवृत्तियों को समाप्त करने का साधन प्राचीन ऋषियों ने स्वानुभव से खोज निकाला था। ध्यान के शान्त वातवरण में मन को अपने शुद्ध पूर्ण स्वरूप में स्थिर करने का प्रयत्न ही वह साधना है। इसके अभ्यास से जिसकी इन्द्रियां स्वत ही वश में आ गयी हैं वही स्थितप्रज्ञ पुरुष माना जाता है।इस श्लोक का गूढ़ार्थ अब स्पष्ट हो जाता है निराहारी का बलपूर्वक किया हुआ इन्द्रिय निग्रह क्षणिक है जिससे आध्यात्मिक सौन्दर्य के खिल उठने की कोई आशा नहीं करनी चाहिये। आत्मानुभाव में स्थित जिस पुरुष की इन्द्रियाँ स्वत वश में रहती हैं वह स्थितप्रज्ञ है। न तो वह इन्द्रियों को नष्ट करता है और न उनका उपयोग ही बन्द करता है। एवं पूर्णत्व प्राप्त ज्ञानी पुरुष वह है जिसकी इन्द्रियाँ और मन वश में होकर उसकी सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं।अब भगवान् असफल व्यक्ति के पतन के कारण बताते हैं।
English Translation By Swami Sivananda
2.61 Having restrained them all he should sit steadfast, intent on Me; his wisdom is steady whose senses are under control.