Verse: 2,57
मूल श्लोक :
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।2.57।।सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उसउस शुभअशुभको प्राप्त करके न तो अभिनन्दित होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।
।।2.57।। स्फूर्ति और प्रेरणा से भरा एक कुशल चित्रकार अपनी कल्पनाओं को विभिन्न रंगों के माध्यम से एक फलक पर व्यक्त करते समय बारम्बार अपने स्थान से पीछे हट कर चित्र को देखता है और प्रत्येक बार अत्यन्त प्रेम से अपनी तूलिका से चित्र का सौन्दर्य वर्धन करता है। यहाँ भगवान् श्री कृष्ण ज्ञानी पुरुष के चित्र को अर्जुन के हृदय पटल पर चित्रित करते हुये चुने हुये शब्दों में ज्ञानी के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों पर और अधिक प्रकाश डालते हैं।यहाँ स्थितप्रज्ञ पुरुष की अनासक्ति का वर्णन है। इस श्लोक को भी प्रकरण के सन्दर्भ में उचित प्रकार से समझना चाहिये अन्यथा कोई भी उसका विपरीत अर्थ कर सकता है। जीवन से अनासक्ति मात्र विवेक का लक्षण नहीं हो सकता। अनेक मूढ़ उत्साही लोग जीवन में अपने कर्तव्यों को त्यागकर जंगलों में इस आशा से पलायन कर जाते हैं कि इस प्रकार के वैराग्य से उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी। अर्जुन भी पहले यही करना चाहता था। अर्जुन को इस अनर्थकारी निर्णय से विरत करने के लिये ही भगवान् ने उसे उपदेश देना प्रारम्भ किया।विषयों के साथ आत्मघातक संग और मूढ़ आसक्ति से स्वयं को इस प्रकार दूर कर लेने मात्र से ही उच्च दिव्य लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। बाह्य विषयों से वैराग्य होने के साथसाथ सभी परिस्थितियों का सामना करने के लिए मन के आन्तरिक सन्तुलन की भी आवश्यकता होती है। शुभ प्राप्ति में हर्षातिरेक का और अशुभ प्राप्ति में द्वेष और विषाद का अभाव ये आत्मज्ञानी के लक्षण हैं।अनासक्ति अपने आप में श्रेष्ठ जीवन का मार्ग नहीं है क्योंकि वह तो जीवन से निरन्तर पलायन ही समझा जायेगा। उसी प्रकार जगत् में आसक्त होना परवशता का लक्षण है। ज्ञानी पुरुष में ये दोनों ही बातें नहीं होतीं वह तो जीवन में आने वाली सभी परिस्थितियों में समान भाव से रहता है। शीत ऋतु में घर के बाहर सूर्य की धूप सेंकना जहाँ आनन्द है वहीं उसकी चमक कष्ट का कारण भी है। सूर्य की चमक के प्रति असन्तोष प्रकट करना धूप के आनन्द को नष्ट करना है। बुद्धिमान पुरुष या तो उस चमक की ओर ध्यान नहीं देता अथवा चमक से अपने को सुरक्षित रखते हुये धूप का आनन्द उठाता है।हमारा जीवन भी शुभअशुभ का मिश्रण है। यह तो उसका स्वभाव ही है। अत सदैव अशुभ के प्रति असंतोष व्यक्त करते हुये उससे पलायन और शुभ की स्पृहा लगी रहना अविवेक के कारण ही सम्भव है। ज्ञानी पुरुष अपने नित्य स्वरूप में स्थित होने के कारण जीवन की उत्कृष्ट एवं निकृष्ट परिस्थितियों में पूर्ण वैराग्य के साथ रहता है।अर्जुन का प्रश्न था कि स्थित प्रज्ञ किस प्रकार बोलता है यह श्लोक उसके उत्तर स्वरूप है। शुभअशुभ हर्ष और विषाद के द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्त ज्ञानी पुरुष के लिये सब सुन्दर ही है। अपनी कल्पनाओं का आरोप किये बिना वस्तुएँ जैसी हैं वह उनका वैसा ही अवलोकन करता है। ऐसा स्थितप्रज्ञ पुरुष पाश्चात्य मनोविज्ञान द्वारा ज्ञात व्यवहार के सभी नियमों से परे है।
English Translation By Swami Sivananda
2.57 He who is everywhere without attachment, on meeting with anything good or bad, who neither rejoices not hastes, his wisdom is fixed.