Verse: 2,27
मूल श्लोक :
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।2.27।।क्योंकि पैदा हुएकी जरूर मृत्यु होगी और मरे हुएका जरूर जन्म होगा इस(जन्ममरणके प्रवाह) का परिहार अर्थात् निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषयमें तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
।।2.27।। भौतिकवादी नास्तिक लोगों का मत है कि बिना किसी पूर्वापर कारण के वस्तुएँ उत्पन्न नहीं होती हैं। आस्तिक लोग देह से भिन्न जीव का अस्तित्व स्वीकार करते हुए कहते हैं कि एक ही जीव विकास की दृष्टि से अनेक शरीर धारण करता है जिससे वह इस दृश्य जगत् के पीछे जो परम सत्य है उनको पहचान सकें। दोनों ही प्रकार के विचारों में एक सामान्य बात यह है कि दोनों ही यह मानते हैं कि जीवन जीवनमृत्यु की एक शृंखला है।इस प्रकार जीवन के स्वरूप को समझ लेने पर निरन्तर होने वाले जन्म और मृत्यु पर किसी विवेकी पुरुष को शोक नहीं करना चाहिए। गर्मियों के दिनों में सूर्य के प्रखर ताप में बाहर खड़े होकर यदि कोई सूर्य के ताप और चमक की शिकायत करे तो वास्तव में यह मूढ़ता का लक्षण है। इसी प्रकार यदि जीवन को प्राप्त कर उसके परिवर्तनशील स्वभाव की कोई शिकायत करता है तो यह एक अक्षम्य मूढ़ता है।उपर्युक्त कारण से शोक करना अपने अज्ञान का ही परिचायक है। श्रीकृष्ण का जीवन तो आनन्द और उत्साह का संदेश देता है। उनका जीवनसंदेश है रुदन अज्ञान का लक्षण है और हँसना बुद्धिमत्ता का। हँसते रहो इन दो शब्दों में श्रीकृष्ण के उपदेश को बताया जा सकता है। इसी कारण जब वे अपने मित्र को शोकाकुल देखते है तो उसकी शोक और मोह से रक्षा करने के लिए और इस प्रकार उसके जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिए वे तत्पर हो जाते हैं।अब आगे के दस श्लोक सामान्य मनुष्य का दृष्टिकोण बताते हैं। भगवान् शंकराचार्य अपने भाष्य में कहते हैं कार्यकारण के सम्बन्ध से युक्त वस्तुओं के लिए शोक करना उचित नहीं क्योंकि
English Translation By Swami Sivananda
2.27 For certain is death for the born, and certain is birth for the dead; therefore, over the inevitable thou shouldst not grieve.