Verse: 2,24
मूल श्लोक :
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।2.24।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।2.24।।यह शरीरी काटा नहीं जा सकता यह जलाया नहीं जा सकता यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहनेवाला सबमें परिपूर्ण अचल स्थिर स्वभाववाला और अनादि है।
।।2.24।। यह तो स्पष्ट ही है कि जिस वस्तु का नाश प्रकृति की विनाशकारी शक्तियाँ अथवा मानव निर्मित साधनों एवं शस्त्रास्त्रों के द्वारा संभव नहीं है उसे नित्य होना चाहिये।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में आत्मा के अनेक विशेषण बताये गये हैं जो शीघ्रतावश चाहें जहां से उठाकर निष्प्रयोजन ही प्रयोग में नहीं लाये गये हैं। विचारों की एक शृंखला के रूप में प्रत्येक शब्द को चुनकर प्रयोग किया गया है। प्रथम पंक्ति में वर्णित जो अविनाशी तत्व हैं उसको नित्य होना चाहिये। जो नित्य वस्तु है वह निश्चित ही सर्वगत भी होगी।सर्वगत इस छोटे से शब्द का अर्थ व्यापक और तात्पर्य गम्भीर है। कोई भी वस्तु ऐसी शेष नहीं रह सकती जो सर्वगत तत्त्व के द्वारा व्याप्त न हो। नित्य आत्मा सर्वगत है तो उसका कोई आकार विशेष भी नहीं हो सकता क्योंकि आकार केवल परिच्छिन्न वस्तु का होता है जिसकी सीमा के बाहर उससे भिन्न अन्य कोई वस्तु रहती है। जैसे हाथ पैर इत्यादि अवयवों का आकार होता है क्योंकि इनके बाहर आसपास आकाश तत्त्व है। अत अपरिच्छिन्न सर्वगत आत्मा का कोई आकार नहीं है क्योंकि उसको परिच्छिन्न करने वाली कोई अन्य वस्तु है ही नहीं।इस प्रकार नित्य सर्वगत वस्तु का स्थिर और अचल होना स्वाभाविक है। उसमें चलनादि क्रिया संभव नहीं। गति केवल उस वस्तु के लिये है जो किसी काल और देश विशेष में रहती हो तब उसका स्थानान्तरण किया जा सकता है। आत्मा का किसी काल अथवा देश में अभाव नहीं है तो उसमें गति होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मैं अपने स्वयं में ही घूम फिर नहीं सकता।यहाँ स्थिर और अचल दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग व्यर्थ प्रतीत हो रहा है क्योंकि वे कुछ समानार्थी हैं। परन्तु स्थिर शब्द से अभिप्राय नीचे मूल की स्थिरता से है जैसे पेड़ एक जगह स्थिर होते हैं परन्तु उनकी वृद्धि ऊपर की ओर होती है। यहाँ अचल रहकर ऊर्ध्व गति का भी निषेध किया गया है। अनन्तस्वरूप आत्मा स्थिर और अचल है अर्थात् उसमें किसी भी प्रकार की चलन क्रिया नहीं है।प्राचीन पुरातन वस्तु को सनातन कहते हैं। इस सनातन शब्द के दो अर्थ हैं एक वाच्यार्थ (शाब्दिक) और दूसरा है लक्ष्यार्थ। उसका सरल वाच्यार्थ यह है कि आत्मा कोई नई बनी वस्तु नहीं है वह प्राचीन है। लक्ष्यार्थ के अनुसार इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा काल और देश से मर्यादित परिच्छिन्न नहीं है। किसी भी देश में किसी भी काल में कोई भी व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार से पूर्णत्व प्राप्त करता है तो वह साक्षात्कार एक ही होगा भिन्नभिन्न नहीं।आगे भगवान कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
2.24 This Self cannot be cut, burnt, wetted, nor dried up. It is eternal, all-pervading, stable, immovable and ancient.