Verse: 2,19
मूल श्लोक :
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।2.19।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।2.19।।जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है वे दोनों ही इसको नहीं जानते क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है।
।।2.19।। आत्मा नित्य अविकारी होने से न मारी जाती है और न ही वह किसी को मारती है । शरीर के नाश होने से जो आत्मा को मरी मानने हैं या जो उसको मारने वाली समझते हैं वे दोनों ही आत्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते और व्यर्थ का विवाद करते हैं। जो मरता है वह शरीर है और मैं मारने वाला हूँ यह भाव अहंकारी जीव का है। शरीर और अहंकार को प्रकाशित करने वाली चैतन्य आत्मा दोनों से भिन्न है। संक्षेप में इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा न किसी क्रिया का कर्त्ता है और न किसी क्रिया का विषय अर्थात् उस पर किसी प्रकार की क्रिया नहीं की जा सकती।आत्मा किस प्रकार अविकारी है इसका उत्तर अगले श्लोक में दिया गया है।
English Translation By Swami Sivananda
2.19 He who takes the Self to be the slayer and he who thinks It is slain, neither of them ï1knowsï1. It slays not, nor is It slain.