Verse: 18,35
मूल श्लोक :
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।18.35।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।18.35।।हे पार्थ दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धृतिके द्वारा निद्रा? भय? चिन्ता? दुःख और घमण्डको भी नहीं छोड़ता? वह धृति तामसी है।
।।18.35।। इस श्लोक में वर्णित तामसी धृति को समझना कठिन नहीं है? क्योंकि हममें से अधिकांश लोगों की धृति इसी श्रेणी की है निद्रा भयादि को धारण करने वाली धृति तामसी कही गयी है।स्वप्न यह शब्द उस मन की प्रक्षेपित कल्पनाओं को इंगित करता है? जो प्राय निद्रावस्था में डूबा रहता है। अनुभव की वह अवस्था स्वप्न है? जहाँ वास्तव में वस्तुओं का अभाव होते हुए भी मनकल्पित मिथ्या विषयों का भोग होता है। तमोगुणी लोग बाह्य वस्तुओं पर अपने मन के द्वारा सुन्दरता एवं सुख का आरोप करके फिर उनकी प्राप्ति के लिए परिश्रम और संघर्षरत रहते हैं।भय ऐसे अविवेकी लोग व्यर्थ में ही अन्धकारमय भविष्य की कल्पना करके उससे भयभीत होते हैं। संभव है कि वह भयप्रद घटना कभी घटित ही न हो? किन्तु उसका काल्पनिक भय ही मनुष्य के सन्तुलन? संयम एवं सन्तोष को नष्ट करने के लिए पर्याप्त होता है। हममें से कितने ही लोगों ने इस प्रकार के भय का अनुभव अपने जीवन में किया होगा। कुछ लोगों को भय होता है कि कल वे मरने वाले हैं? और प्रतिदिन वे पूर्व के समान ही स्वस्थ व्यक्ति के रूप में ही जागते हैं मानसिक दृष्टि से? ऐसे लोग भयोन्माद के रोगी होते हैं। और जिस दृढ़ता से वे इस भय ग्रन्थि को ग्रहण किये रहते हैं? वह वास्तव में अपूर्व होती है।शोक? विषाद और मद मनुष्य की सार्मथ्य को क्षीण करने वाले ये तीन कारण हैं। तामसी पुरुष इन्हें धारण करके एक प्रकार की आन्तरिक रिक्तता और थकान का अनुभव करता है। अतीत में हुई अनिष्ट घटना का मनुष्य को शोक होता है भविष्य को अन्धकारमय देखकर उसका मन विषाद से भर जाता है और वर्तमान काल मे कामुकतापूर्ण अनैतिक जीवन का गर्व करने में ही मूढ़ पुरुष को मद का अनुभव होता है।उपर्युक्त स्वप्नादि पाँच जीवन मूल्यों को धारण करने वाले पुरुष दुर्मेधा हैं और ऐसे पुरुषों की धृति तामसी कही जाती है।इसके पश्चात्? अब? कर्म के फल सुख का वर्णन करते हैं? जो भी त्रिविध है। भगवान् कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
18.35 That, by which a stupid man does not abandon sleep, fear, grief, despair and also conceit that firmness, O Arjuna, is Tamasic.