Verse: 18,34
मूल श्लोक :
यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽर्जुन।प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।।18.34।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।18.34।।हे पृथानन्दन अर्जुन फलकी इच्छावाला मनुष्य जिस धृतिके द्वारा धर्म? काम (भोग) और अर्थको अत्यन्त आसक्तिपूर्वक धारण करता है? वह धृति राजसी है।
।।18.34।। मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ हैं अर्थात् प्रयत्नों के द्वारा प्राप्त करने योग्य लक्ष्यधर्म (पुण्य)? अर्थ? काम और मोक्ष। जिस सातत्य के साथ मनुष्य धर्म? अर्थ और काम को धारण करता है? वह राजसी धृति कहलाती है। यहाँ मोक्ष का अनुल्लेख ध्यान देने योग्य है। राजसी पुरुष को संसार बन्धनों से सदैव के लिए मुक्त होने की इच्छा नहीं होती।राजसी पुरुष का धर्माचरण भी पुण्यप्राप्ति के द्वारा स्वर्गादि लोकों के सुख भोग के लिए ही होता है। अर्थ से तात्पर्य धन? सत्ता? अधिकार आदि से है? तथा काम का अर्थ विषयोपभोग है। रजोगुणी पुरुष की यह दृढ़ धारणा होती है कि इन्द्रियों के विषय ही सुख का साधन हैं।
English Translation By Swami Sivananda
18.34 But that, O Arjuna, by which, on account of attachment and desire for reward, one holds fast to Dharma (duty), enjoyment of pleasures and earning of wealth that firmness, O Arjuna, is Rajasic (passionate).