Verse: 18,21
मूल श्लोक :
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।18.21।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।18.21।।परन्तु जो ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञानके द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियोंमें अलगअलग अनेक भावोंको अलगअलग रूपसे जानता है? उस ज्ञानको तुम राजस समझो।
।।18.21।। जब हम इन्द्रिय? मन और बुद्धि के माध्यम से जगत् का अवलोकन करते हैं? तब? निसन्देह उसमें हमें असंख्य प्रकार के भेद दृष्टिगोचर होते हैं। परन्तु जो वस्तु जिस रूप में दिखाई देती है? उसके उसी रूप को सत्य समझ लेना अविवेक का लक्षण है। राजसी पुरुष का मन सदैव चंचल और अस्थिर रहने के कारण वह कभी शान्त मन से विचार नहीं कर पाता और यही कारण है कि वह दृष्टिगोचर भेद? जैसे वनस्पति? पशु? मनुष्य आदि को परस्पर सर्वथा भिन्न और सत्य मान लेता है। ऐसे ज्ञान को राजस ज्ञान कहते हैं।
English Translation By Swami Sivananda
18.21 But that knowledge which sees in all beings various entities of distinct kinds as different from one another know thou that knowledge to be Rajasic.