Verse: 18,12
मूल श्लोक :
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।18.12।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।18.12।।कर्मफलका त्याग न करनेवाले मनुष्योंको कर्मोंका इष्ट? अनिष्ट और मिश्रित -- ऐसे तीन प्रकारका फल मरनेके बाद भी होता है परन्तु कर्मफलका त्याग करनेवालोंको कहीं भी नहीं होता।
।।18.12।। सभी कर्मों का फल उनके गुण स्तर पर निर्भर करता है। इसके पूर्व त्रिविध त्याग का वर्णन किया गया था? और अब यहाँ उनके त्रिविध फलों का वर्णन किया जा रहा है।मनुष्य की इच्छा का बाह्य जगत् में भी प्रक्षेपण होता है? उसे कर्म कहते हैं। और प्रत्येक कर्म? कर्ता की मनस्थिति तथा उसके उद्देश्य के अनुसार? अपना संस्कार उस कर्ता के अन्तकरण में अंकित करता है। मानवमन का स्वभाव कर्मों को दोहराने का है। भावी विचार भूतकाल के विचार चिन्हों का ही अनुकरण करते हैं। इस प्रकार? कर्म से वासनायें उत्पन्न होती हैं? और फिर जगत् की घटनाओं के साथ इन वासनाओं के अनुसार? हमारी प्रतिक्रियायें होती हैं। दर्शनशास्त्र में कर्मफल से तात्पर्य केवल लौकिक फल से ही न होकर? हमारे अन्तकरण में अंकित होने वाले कर्मों के संस्कारों से भी है।ये कर्मफल यहाँ त्रिविध बताये गये हैं (1) इष्ट अर्थात् शुभ कल्याणकारी? (2) अनिष्ट अर्थात् अशुभ अनर्थकारी? और (3) मिश्र अर्थात् शुभाशुभ का मिश्ररूप।काल के सतत् प्रवाह में वर्तमान काल निकट भविष्य को निर्धारित करता है। इसलिए स्पष्ट है कि विभिन्न संरचनाओं वाली हमारी वासनायें ही निकट भविष्य की घटनाओं के प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं को निर्धारित करेंगी। यदि इसी सिद्धांत को हम अपने वर्तमान देह के मरण के क्षण तक आगे बढ़ायें? तो यह तथ्य स्पष्ट हो जायेगा कि मरणोपरान्त का हमारा देह तथा जन्म देश आदि का निर्धारण उस समय की हमारी वासनाओं के अनुरूप ही होगा। यही सनातन धर्म में प्रतिपादित पुनर्जन्म का सिद्धांत है।शुभ कर्मों के फल उच्चलोक का सुख है और अशुभ कर्मों का फल अशुभ अर्थात् निम्नस्तर का दुखपूर्ण पशु जीवन है। शुभाशुभ के मिश्रण के फलस्वरूप मनुष्य देह की प्राप्ति होती है। इस देह में रहते हुए हम अपने बन्धनों को और अधिक दृढ़ भी कर सकते हैं और उन बन्धनों से पूर्ण मुक्ति भी प्राप्त कर सकते हैं। अत लक्ष्य का निर्धारण हमें ही करना है। निसन्देह? सभी मनुष्यों के हृदय में सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्ति का आह्वान होता रहता है? परन्तु उसी हृदय में निवास कर रहे अवगुणरूपी पशु भी भौंकते? चीखते? पुकारते और गर्जना करते रहते हैं। वे हमें भ्रमित कर अपने लक्ष्य से दूर ले जाते हैं।यदि मनुष्य अपने श्रेष्ठ आदर्श से तादात्म्य करता है तो उसके अवगुण शनै शनै समाप्त हो जाते हैं। और यदि वह उपाधियों के साथ तथा विषयों में आसक्त होता है? तो उसके अवगुण निरन्तर प्रवृद्ध ही होते जाते हैं जो उसके दिव्य स्वरूप को आच्छादित करते हैं। संक्षेप में? उच्च और नीच के इस शक्ति परीक्षण में निर्णायक तत्त्व मनुष्य का अपना व्यक्तित्व ही होता है।इस श्लोक में कथित त्रिविध फलों से पूर्ण मुक्ति पाने के लिए साधक को अपने त्रिगुणातीत आत्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना चाहिए। त्याग और संन्यास के सूक्ष्म भेद को यहाँ स्पष्ट किया गया है। त्याग का अर्थ है? त्रिगुणों से प्रभावित मन की वृत्तियों के साथ होने वाले तादात्म्य का प्रयत्नपूर्वक त्याग तथा संन्यास का अर्थ है उस अहंकार का ही त्याग जो शुभअशुभ कर्मों का कर्ता तथा इष्टानिष्टादि फलों का भोक्त बनता है।सम्पूर्ण गीता में मनुष्य के व्यक्तित्व के पुनर्गठन के सिद्धांत एवं साधनाओं का अत्यन्त सुन्दर और विस्तृत विवेचन किया गया है। उसका सारांश यह है कि (1) सर्वप्रथम अहंकार और स्वार्थ का त्याग कर ईश्वरार्पण की भावना से कर्तव्य पालन करना? (2) इस प्रकार अन्तकरण की शुद्धि प्राप्ति होने पर वेदान्त प्रमाण के द्वारा आत्मस्वरूप का श्रवण एवं मनन करना? और (3) तत्पश्चात् आत्मा के निदिध्यासन द्वारा आत्मसाक्षात्कार करके उसी सत्स्वरूप में निष्ठा प्राप्त करना। आत्मानुभव में भवसागर सूख जाता है। शुद्ध आत्मा में कुछ बनने की क्रिया नहीं है। मन की वासनाओं से वह सदा असंस्पृष्ट रहता है।अब? आगामी श्लोकों में कर्म के स्वरूप का विवेचन किया जा रहा है
English Translation By Swami Sivananda
18.12 The threefold fruit of action (evil, good and mixed) accrues after death to the non-abandoners, but never to the abandoners.