Verse: 18,10
मूल श्लोक :
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।।18.10।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।18.10।।जो अकुशल कर्मसे द्वेष नहीं करता और कुशल कर्ममें आसक्त नहीं होता? वह त्यागी? बुद्धिमान्? सन्देहरहित और अपने स्वरूपमें स्थित है।
।।18.10।। पूर्व श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने यह कहा था कि सात्त्विक पुरुष अपने नियत कर्मों को? केवल कर्तव्य समझकर फलासक्ति को त्यागकर? करता है। प्रथम दृष्टि में? सामान्य पुरुष को त्याग का यह सिद्धांत असंभव ही प्रतीत होगा। संभवत अर्जुन के मुख पर कुछ इसी प्रकार के आश्चर्य भाव को देखकर? भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में सात्त्विक पुरुष का और अधिक स्पष्ट चित्रण करते हैं।सामान्य अज्ञानी जन अतिरेकी स्वभाव के होते हैं। वे जगत् को यथार्थ रूप में कभी नहीं देखते। जगत् की वस्तुओं को वे अपने राग द्वेष से रंजित दृष्टि से देखते हैं। तत्पश्चात्? वे अपनी प्रिय वस्तु को पाने का प्रयत्न करते हैं और अप्रिय को त्यागने के लिए परिश्रम करते हैं। इसके लिए वे शुभाशुभ कर्मों की चिन्ता नहीं करते। प्रिय वस्तु को प्राप्त कराने वाले कर्म में उनकी आसक्ति हो जाती है और अन्य कर्म से द्वेष। इसके परिणामस्वरूप? इष्ट की प्राप्ति पर उन्हें हर्षातिरेक होता है और अनिष्ट की प्राप्ति में वे विषाद के गर्त में गिर जाते हैं। ऐसे लोगों के अन्तकरण में काम? क्रोध? ईर्ष्या आदि अवगुणों का स्थायी निवास होता है। यदाकदा इनमें से कोई व्यक्ति धर्माचरण में प्रवृत्त भी होता है? तो अपने अतिरेकी स्वभाव के कारण धार्मिक कार्य में आसक्त हो जाता है और अन्य लोगों को पतित समझकर उन्हें हेय दृष्टि से देखता है परन्तु? सत्त्वगुणी पुरुष उपर्युक्त समस्त अवगुणों से मुक्त होता है। इसका कारण उसकी विकसित विवेक शक्ति है। आत्मानात्माविवेक के द्वारा वह यह भलीभांति जानता है कि शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि ये सब अनात्मा हैं तथा जन्ममरण? क्षुधातृषा और शोकमोह ये सब इनके ही धर्म हैं? न कि इन सब को प्रकाशित करने वाले साक्षी आत्मा के? इस ज्ञान के कारण वह अनात्म उपाधियों से तादात्म्य नहीं करता। इसी को यहाँ इस प्रकार कहा गया है कि वह अशुभ से द्वेष और शुभ से राग नहीं करता है। ऐसा पुरुष ही वास्तव में सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत कहा जाता है। अन्य अविवेकी लोग तो शुष्क पर्ण के समान वायु की गति और दिशा के साथ इतस्तत भटकते रहते हैं। विवेकी पुरुष अपने मन का साक्षी बनकर रहता है? जबकि अविवेकी लोग? त्याग के अभाव में? अपने मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य करके दुख भोगते रहते हैं।किसी भी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझने तथा मिथ्या का त्याग करने के लिए अपने नित्य और पूर्ण स्वरूप का बोध आवश्यक है। वस्तुओं को समझने तथा युक्तियुक्त विचार करने की बुद्धि की इस क्षमता को मेधा शक्ति कहते हैं। केवल इतना ही नहीं? वरन् प्राप्त ज्ञान को धारण एवं आवश्यकतानुसार स्मरण करने की क्षमता भी मेधा ही है। इस शक्ति से सम्पन्न पुरुष मेधावी कहा जाता है। ऐसे मेधावी पुरुष क ो निम्नलिखित तत्त्वों का स्पष्टत ज्ञान होता है (1) अपना कर्मक्षेत्र? (2) वे उपाधियां जिनके द्वारा वह जगत् से सम्पर्क करता है? (3) अपना शुद्ध आनन्द स्वरूप? और (4) जगत् से अपना संबंध। यह मेधावी पुरुष संशय रहित (छिन्न संशय) होता है? क्योंकि वस्तु के अपूर्ण ज्ञान से ही संशय उत्पन्न हो सकता है? अन्यथा नहीं।इसमें कोई सन्देह नहीं कि ऐसे सात्त्विक त्यागी पुरुष जगत् में विरले ही होते हैं। बहुसंख्यक लोग तो अपनी देहादि उपाधियों के साथ तादात्म्य स्थापित करके स्वयं को कर्म का कर्ता मानते हैं और तब उन्हें कर्मफल भोगने के लिए बाध्य होना ही पड़ता है।जो अज्ञानी पुरुष कर्तृत्व के अभिमान तथा देहासक्ति को त्याग नहीं पाता है? उसको कम से कम कर्म फल त्याग करना चाहिए। भगवान् कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
18.10 The man of renunciation, pervaded by purity, intelligent, and with his doubts cut asunder, does not hate a disagreeable work nor is he attached to an agreeable one.