Verse: 17,27
मूल श्लोक :
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।17.27।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।17.27।।यज्ञ? तप और दानरूप क्रियामें जो स्थिति (निष्ठा) है? वह भी सत् -- ऐसे कही जाती है और उस परमात्माके निमित्त किया जानेवाला कर्म भी सत् -- ऐसा ही कहा जाता है।
।।17.27।। तत्सत् से प्रारम्भ किये गये प्रकरण का तात्पर्य यह है कि यदि साधक के यज्ञ? दान और तप ये कर्म पूर्णतया शास्त्रविधि से सम्पादित नहीं भी हों? तब भी परमात्मा के स्मरण तथा परम श्रद्धा के साथ यथाशक्ति उनका आचरण करने पर वे उसे श्रेष्ठ फल प्रदान कर सकते हैं।इसका सिद्धांत यह है कि मनुष्य जगत् में अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर शुभाशुभ कर्म करता है। इन कर्मों के फलस्वरूप उसके अन्तकरण में वासनाएं होती जाती हैं? जो उसे कर्मों में प्रवृत्त करके उसके बन्धनों को दृढ़ करती जाती हैं। इन कर्म बन्धनों से मुक्ति पाने का उपाय कर्म ही है? परन्तु वे कर्म केवल कर्तव्य कर्म ही हों और उनका आचरण ईश्वरार्पण बुद्धि से किया जाना चाहिए। ईश्वर के स्मरण से अहंकार नहीं रह जाता और इस प्रकार वासनाओं की निवृत्ति हो जाती है। इसीलिए इस श्लोक में कहा गया है कि परमात्मा के लिए किया गया कर्म सत् कहलाता है? क्योंकि वह मोक्ष का साधन है।यज्ञदानादि कर्म परम श्रद्धा के साथ युक्त होने पर ही पूर्ण होते हैं। तब स्वाभाविक ही
English Translation By Swami Sivananda
17.27 Steadfastness in sacrifice, austerity and gift, is also called 'Sat' and also action in connection with these (or for the sake of the Supreme) is called 'Sat'.