Verse: 17,2
मूल श्लोक :
श्री भगवानुवाचत्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।।17.2।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।17.2।।श्रीभगवान् बोले -- मनुष्योंकी वह स्वभावसे उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्त्विकी तथा राजसी और तामसी -- ऐसे तीन तरहकी ही होती है? उसको तुम मेरेसे सुनो।
।।17.2।। अपने मुख्य प्रवचन के पूर्व आमुख रूप में? भगवान् कहते हैं कि श्रद्धा तीन प्रकार की होती हैं सात्त्विकी? राजसी और तामसी। श्रद्धा के अनुसार हमारी वासनाएं होती हैं और वे ही जीवन विषयक हमारे दृष्टिकोण को निश्चित करती हैं। हमारे समस्त विचार? भावनाएं और कर्म हमारे दृष्टिकोण के अनुरूप ही होते हैं। अत स्वाभाविक ही है कि मनुष्य के शारीरिक कर्म? मानसिक व्यवहार और बौद्धिक संरचनाएं सब उसकी श्रद्धा से निश्चित होते हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपनी श्रद्धा के अनुरूप होता है? यह नियम है। जो मनुष्य अपनी देह के साथ जितना अधिक तादात्म्य करेगा उतना ही अधिक स्थूल और दृढ़ उसका अभिमान या अहंकार होगा। यह सब सत्त्व? रज और तम इन गुणों के न्यूनाधिक्य पर निर्भर करता है।श्रद्धा के समझने के लिए इन तीन गुणों के सन्दर्भ का क्या औचित्य है इस पर कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
17.2 The Blessed Lord said Threefold is the faith of the embodied, which is inherent in their nature the Sattvic (pure), the Rajasic (passionate) and the Tamasic (dark). Do thou hear of it.