Verse: 17,15
मूल श्लोक :
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।17.15।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।17.15।।उद्वेग न करनेवाला? सत्य? प्रिय? हितकारक भाषण तथा स्वाध्याय और अभ्यास करना -- यह वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है।
।।17.15।। मनुष्य के पास स्वयं को अभिव्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है वाणी। इस वाणी के द्वारा वक्ता की बौद्धिक पात्रता? मानसिक शिष्टता एवं शारीरिक संयम प्रकट होते हैं। यदि वक्ता अपने व्यक्तित्व के इन सभी स्तरों पर सुगठित न हो? तो उसकी वाणी में कोई शक्ति? कोई चमत्कृति नहीं होती। वाणी एक कर्मेन्द्रिय है? जिसके सतत क्रियाशील रहने से मनुष्य की शक्ति का सर्वाधिक व्यय होता है। अत वाणी के संयम के द्वारा बहुत बड़ी मात्रा में शक्ति का संचय किया जा सकता है? जिसका सदुपयोग हम अपनी साधना में कर सकते हैं।इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि हम आत्मनाशक और परोत्तेजक मौन को धारण करें। वाक्शक्ति का उपयोग व्यक्तित्व के सुगठन के लिए करना चाहिए। इस शक्ति का सदुपयोग करने की एक कला है जो वक्ता के तथा अन्य लोगों के लिए भी हितकारी है। वाणी की इस हितकारी कला का वर्णन इस श्लोक में किया गया है। पूर्व श्लोक में इंगित किये गये विचार को यहाँ और अधिक स्पष्ट किया गया है कि तप कोई आत्मपीड़ा का साधन न होकर आत्मविकास एवं आत्मसाक्षात्कार की कल्याणकारी योजना है।अनुद्वेगकर वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द ऐसे नहीं होने चाहिए? जो श्रोता के मन में उद्वेग या उत्तेजना उत्पन्न करें वे शब्द न तो उत्तेजक हों और न अश्लील। वक्ता द्वारा प्रयुक्त किये गये शब्दों की उपयुक्तता की परीक्षा श्रोताओं की प्रतिक्रिया से हो जाती है। परन्तु लोग प्राय अपनी आंखें बन्द करके ही बोलते हैं? और जब उनकी आंखें खुली रहती हैं तब भी वे अन्धवत् ही रहते हैं। अनेक दुर्भागी लोग अपने जीवन में विफल होते हैं और मित्र बन्धुओं को खो देते हैं? उसका कारण केवल उनकी वाणी की कटुता? शब्दों की कठोरता और उनके विवेकशून्य विचारों की दुर्गन्ध ही है सत्य? प्रिय और हित सत्य भाषण श्रेष्ठ है। परन्तु सत्य वचन प्रिय और हितकारी भी हो। इन तीनों के होने पर ही वह वक्तृत्व वाङ्मय तप कहलाता है? जो साधक के लिए कल्याणकारी सिद्ध होता है।असत्य बोलने से हमारी शक्ति का अत्यधिक ह्रास और अपव्यय होता है। यदि हम सत्य बोलने की नीति अपनायें? तो शक्ति का यह अपव्यय रोका जा सकता है। जो वाक्य हमारे विचारों को उनके यथार्थ रूप में प्रस्तुत करते हैं? उन्हें सत्य वचन कहते हैं? और जिन शब्दों के द्वारा अपने विचारों को जानबूझ कर विकृत रूप में प्रस्तुत किया जाता है वे असत्य हैं। समाज में अनेक लोग सत्यवादिता के नाम पर अत्यन्त कटुभाषी हो जाते हैं। परन्तु वह वाङ्मय तप न होने के कारण एक साधक के लिए अनुपयुक्त है। गीता के अनुसार हमारे वचन सत्य हों तथा प्रिय भी हों। इसका अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि जब कथनीय सत्य श्रोता को प्रिय न हों? तो वक्ता को विवेकपूर्वक मौन ही रहना चाहिए केवल सत्य और प्रिय वचन ही पर्याप्त नहीं है? अपितु वे हितकारक भी होने चाहिए। शब्दों का अपव्यय नहीं करना चाहिए। निरर्थक भाषण से वक्ता को केवल थकान ही होगी। मनुष्य को केवल तभी बोलना चाहिए? जब वह किसी श्रेष्ठ सत्य को मधुर वाणी में समझाना चाहता हो? जो कि श्रोता के हित में है। सत्य प्रिय और हितकारी वचनों का अभ्यास ही वाङ्मय तप कहलाता है।स्वाध्यायअभ्यास वाक्संयम का अर्थ शवागर्त के चेतनाहीन और निष्प्राण मौन को धारण करना कदापि नहीं है। आत्मोन्नति के रचनात्मक कार्य में वाक्शक्ति का सदुपयोग करना ही भगवान् की दृष्टि में वाक्संयम अथवा वाङ्मय तप है। स्वाध्याय का अर्थ है? वेदों का पठन? उनके अध्ययन के द्वारा अर्थ ग्रहण और तत्पश्चात् उनका अनुशीलन करना। सत्य? प्रिय और हितकारक भाषण के द्वारा सुरक्षित रखी गयी शक्ति का सदुपयोग उपर्युक्त स्वाध्याय में करना चाहिए।साधना का विस्तृत विवेचन करने में यह श्लोक स्वयं में सम्पूर्ण है। प्रथम पंक्ति में हमारी शक्ति के दैनिक निष्प्रयोजक अपव्यय को रोकने का उपाय बताया गया है और दूसरी पंक्ति में इस सुरक्षित शक्ति का सदुपयोग वर्णित है। इस प्रकार? तप के द्वारा साधक को श्रेष्ठतर आनन्द की प्राप्ति हो सकती है।अब? मानसतप को बताते हैं
English Translation By Swami Sivananda
17.15 Speech which causes no excitement, truthful, pleasant and beneficial, the practice of the study of the Vedas, are called austerity of speech.