Verse: 17,11
मूल श्लोक :
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।।17.11।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।17.11।।यज्ञ करना कर्तव्य है -- इस तरह मनको समाधान करके फलेच्छारहित मनुष्योंद्वारा जो शास्त्रविधिसे नियत यज्ञ किया जाता है? वह सात्त्विक है।
।।17.11।। प्रस्तुत खण्ड में यह दर्शाया गया है कि किस प्रकार मनुष्यों के कर्मों में भी उसके स्वभाव की सुरूपता और कुरूपता स्पष्ट होती है।अफलाकांक्षिभि सात्त्विक पुरुषों के यज्ञ कर्म सदैव फलासक्ति से रहित और निस्वार्थ भाव से किये जाते हैं। फल की प्राप्ति भविष्य में ही होती है? और इसलिए वर्तमान समय में उनकी चिन्ता करने में अपनी क्षमताओं को क्षीण करना अविवेक का ही लक्षण है।शास्त्रविधि से नियत किया हुआ वेदों में कर्मों का वर्गीकरण चार भागों में किया गया है। (1) काम्य कर्म अर्थात् व्यक्तिगत लाभ को लिए कामना से प्रेरित होकर किया गया कर्म? (2) निषिद्ध कर्म? (3) नित्य कर्म और (4) नैमित्तिक अर्थात् किसी निमित्त वशात् करने योग्य कर्म। इनमें से प्रथम दो प्रकार के कर्मों को त्यागना चाहिए तथा शेष कर्मों का पालन करना चाहिए। नित्य और नैमित्तिक कर्मों को ही सम्मिलित रूप में कर्तव्य कर्म कहते हैं। यह शास्त्रविधान है। तमोगुणी लोग शास्त्रविधि का सर्वथा उल्लंघन करते हैं? परन्तु सत्त्वगुणी लोग उसका सम्मान करते हैं।यह मेरा कर्तव्य है सदाचारी पुरुष सदा अपने कर्मों को केवल कर्तव्य की भावना से ही करते हैं। अत उन्हें फल की चिन्ता कभी नहीं होती है। इस प्रकार व्यर्थ में वे अपनी शक्तियों का अपव्यय नहीं होने देते। वे अपनी स्वरूपभूत शान्ति में स्थित रहते हैं। सात्त्विक पुरुष को इसी बात की प्रसन्नता होती है कि वह समाज कल्याण के उपयोगी कर्म कर सकता है। ऐसे कर्म ही सात्त्विक कहलाते हैं।
English Translation By Swami Sivananda
17.11 That sacrifice which is offered by men without desire for reward as enjoined by the ordinance (scripture), with a firm faith that to do so is a duty, is Sattvic or pure.