Verse: 16,6
मूल श्लोक :
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रृणु।।16.6।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।16.6।।इस लोकमें दो तरहके प्राणियोंकी सृष्टि है -- दैवी और आसुरी। दैवीका तो मैंने विस्तारसे वर्णन कर दिया? अब हे पार्थ तुम मेरेसे आसुरीका विस्तार सुनो।
।।16.6।। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ केवल दो प्रकार के दैवी और आसुरी लोगों का ही उल्लेख करते हैं? परन्तु वस्तुत सृष्टि में एक और प्रकार के लोग भी हैं जो सुधार के सर्वथा अयोग्य होते हैं। ये हैं राक्षसी प्रवृत्ति के लोग जिनके विषय में भगवान् सर्वथा मौन हैं। उनका यह मौन? संभवत उनकी वक्तृता से भी अधिक बोधक है धर्म और आत्मविकास की साधनाओं का उपदेश प्रथम दो प्रकार के लोगों के लिए है? राक्षसों के लिए नही? क्योंकि उनका अभी पर्याप्त विकास नहीं हुआ है वे अभी भी प्राणियों को गढ़ने वाली प्रकृति के हाथों में हैं और उन्हें अभी जीवन के सन्तप्त करने वाले अनुभवों की अग्नि में परिपक्व होने की आवश्यकता है। पर्याप्त विकास को प्राप्त होने पर ये राक्षसी लोग असुरों की श्रेणी में आ जाते हैं? जहाँ से आगे का पथप्रदर्शन उन्हें धर्म के द्वारा किया जाता है। इस प्रकार? दैवी स्वभाव के उत्पन्न हो जाने पर उनके लिए आत्मविचार के द्वारा आत्मसाक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।इस अध्याय के चौथे श्लोक में आसुरी सम्पदा का संक्षिप्त रेखाचित्र ही चित्रित किया गया था जिसका सम्पूर्ण विस्तृत विवरण प्रस्तुत खण्ड में दिया गया है। विश्व के प्राय समस्त धर्मग्रन्थों में नैतिकता और सदाचार के सद्गुणों का तो स्तुतिगान गाया गया है परन्तु आसुरी पुरुष के अवगुणों का विस्तृत वर्णन उसमें क्वचित् ही मिलता है। हिन्दू धर्म के कुछ आलोचक जब हमारे धर्मशास्त्रों में ऐसे वर्णन को पाते हैं? तो टीका के योग्य विषय मिलने के कारण वे प्रसन्न हो जाते हैं। असुरों का वर्णन करना धर्मशास्त्रों एवं ऋषि मुनियों के लिए दूषणास्पद है? ऐसा उनका मत है। इस प्रकार की आलोचना विशेषत उन्नीसवीं शताब्दि के आलोचकों के द्वारा अधिक की जाती थी। परन्तु अब? बीसवीं शताब्दि में मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुए अनुसन्धानों के परिणामों के कारण उन्हें मौन धारण करना पड़ा है। मनोविज्ञान्ा के अनुसार? अपने अवगुणों का तीव्रता से भान होना और अपनी हीन प्रवृत्तियों के प्रति घृणा उत्पन्न होना ही उनके निराकरण का सरल उपाय है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में इस आधार पर सफल प्रयोग भी किये गये हैं।अशुभ? शुभ का केवल विरोधी ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि शुभ प्रकृति के एक प्रकार के गुण हैं? तो अशुभ प्रकृति के उससे भिन्न लक्षण हैं। मनुष्य की प्रवृत्तियाँ विशिष्ट प्रकार की होती हैं? और शुभ और अशुभ दोनों ही उसके हृदय की अभिव्यक्तियाँ हैं। शुभ का त्रुटिपूर्ण अर्थ ही अशुभ है। इसलिए? आसुरी गुणों की इस सूची में हमें कोई पूर्वकथित दैवी गुणों के विरोधी लक्षणों की नीरस गणना नहीं मिलेगी। असुरों के स्वभाव का अध्ययन करने पर ज्ञात होगा कि मूलत उनके गुण सत्पुरुषों के समान ही होते हैं? परन्तु उनका दुरुपयोग त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन के कारण अति उत्साह में आकर विपरीत दिशा में किया जाता है। अज्ञान से विषाक्त सद्गुण ही अवगुण बन जाता है? और अवगुण का उपचार करने पर वह विषमुक्त होकर सद्गुणरूपी स्वास्थ्य को पुन प्राप्त कर लेता है।इस प्रकार? आसुरी स्वभाव का वर्णन करने वाले इस खण्ड के प्रथम श्लोक में ही? मानो? उनके लिए क्षमा याचना करते हुए तथा उनके प्रति हमारे हृदय में छिपी करुणा को उजागर करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
16.6 There are two types of beings in this world, the divine and the demoniacal; the divine has been described at length; hear from Me, O Arjuna, of the demoniacal.