Verse: 16,15
मूल श्लोक :
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।।16.15।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।16.15।।हम धनवान् हैं? बहुतसे मनुष्य हमारे पास हैं? हमारे समान और कौन है हम खूब यज्ञ करेंगे? दान देंगे और मौज करेंगे -- इस तरह वे अज्ञानसे मोहित रहते हैं।
।।16.15।। अज्ञान और उससे उत्पन्न विपरीत ज्ञान से मोहित तथा गर्व और मद से उन्मत्त आसुरी पुरुष जगत् की ओर इसी भ्रामक दृष्टि से देखता है। ऐसी स्थिति में स्वयं का तथा जगत् के साथ अपने संबंध का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन करना स्वाभाविक ही है। उसे अपने धन? वैभव और कुल का इतना अभिमान होता है कि वह अपने समक्ष सभी को तुच्छ समझता है। स्वयं ही समाज से बहिष्कृत होकर वह मिथ्या अभिमान के महल में रहता है और असंख्य प्रकार की मानसिक यातनाओं का कष्ट भी भोगता रहता है। उसकी महत्त्वाकांक्षा यह होती है कि यज्ञादि के द्वारा वह देवताओं पर भी शासन करे और दान के द्वारा सम्पूर्ण जगत् का क्रय कर ले। इस प्रकार? सम्मानित और पूजित होकर मैं मौज करूँगा। वे अज्ञान के गर्त में पड़े हुए आसुरी पुरुष के कुछ अत्यन्त विक्षिप्ततापूर्ण कथन हैं।उपर्युक्त तीन श्लोकों का सारांश बताते हुए कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
16.15 "I am rich and born in a noble family. Who else is eal to me? I shall perform sacrifices. I shall give (charity). I shall rejoice," thus deluded by ignorance.