Verse: 16,13
मूल श्लोक :
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।।16.13।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।16.13।।इतनी वस्तुएँ तो हमने आज प्राप्त कर लीं और अब इस मनोरथको प्राप्त (पूरा) कर लेंगे।,इतना धन तो हमारे पास है ही? इतना धन फिर हो जायगा।
।।16.13।। यह श्लोक स्वत स्पष्ट है। सामान्य लोग इसी प्रकार का जीवन जीते हैं। प्रतिस्पर्धा से पूर्ण इस जगत् में उस व्यक्ति को सफल समझा जाता है? जिसके पास अधिकतम धन हो। अत मनुष्य को जितना अधिक धन प्राप्त होता है? उससे उसकी सन्तुष्टि नहीं होती। धनार्जन की इस धारणा में हास्यास्पद विरोधाभास यह है कि धन प्राप्ति से सन्तोष होने के स्थान पर अधिकाधिक धन की इच्छा बढ़ती जाती है। आज तक किसी भी भौतिकवादी धनी व्यक्ति ने अपने धन को पर्याप्त नहीं माना है।इसके विपरीत स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षण बताते हुए गीता में कहा गया है कि ज्ञानी पुरुष की परिपूर्णता ऐसी होती है कि जगत् के विषय उसके मन में किंचित् भी विकार उत्पन्न नहीं करते हैं? और वही पुरुष वास्तविक शान्ति प्राप्त करता है? न कि कामी पुरुष।इस श्लोक में आसुरी पुरुष का भौतिक वस्तुओं के संबंध में दृष्टिकोण बताया गया है? अब अगले श्लोक में उसके व्यक्तिविषयक दृष्टिकोण को,बताते हैं।
English Translation By Swami Sivananda
16.13 "This has been gained by me today; this desire of mine I shall fuffil; this is mine and this wealth also shall be mine in future."