Verse: 15,4
मूल श्लोक :
ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।15.4।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।15.4।।उसके बाद उस परमपद(परमात्मा) की खोज करनी चाहिये जिसको प्राप्त होनेपर मनुष्य फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिससे अनादिकालसे चली आनेवाली यह सृष्टि विस्तारको प्राप्त हुई है? उस आदिपुरुष परमात्माके ही मैं शरण हूँ।
।।15.4।। कहीं ऐसा न हो कि कोई विद्यार्थी इस रूपक के वास्तविक अभिप्राय को न समझकर उसे कोई लौकिक वृक्ष ही समझ लें? गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसा वर्णन किया गया है? वैसा वृक्ष यहाँ उपलब्ध नहीं होता। पूर्व श्लोक में वर्णित अश्वत्थ वृक्ष इस व्यक्त हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रतीक है। सूक्ष्म चैतन्य आत्मा विविध रूपों और विभिन्न स्तरों पर विविधत व्यक्त होता है जैसे शरीर? मन और बुद्धि में क्रमश विषय? भावनाओं और विचारों के प्रकाशक के रूप में और कारण शरीर में वह अज्ञान को प्रकाशित करता है। आत्मअज्ञान या वासनाओं को ही कारण शरीर कहते हैं। ये समस्त उपाधियाँ तथा उनके अनुभव अपनी सम्पूर्णता में अश्वत्थवृक्ष के द्वारा निर्देशित किये गये हैं। अत यह कोई परिच्छिन्न वृक्ष न होने के कारण कोई इसे एक दृष्टिक्षेप से देखकर समझ नहीं सकता है।कोई भी पुरुष इस संसार वृक्ष का आदि या अन्त या प्रतिष्ठा नहीं देख सकता। यह वृक्ष परम सत्य के अज्ञान से उत्पन्न होता है। जब तक वासनाओं का प्रभाव बना रहता है तब तक इसका अस्तित्व भी रहता है? किन्तु आत्मा के अपरोक्ष ज्ञान से यह समूल नष्ट हो जाता है। बहुसंख्यक लोगों द्वारा इन आध्यात्मिक आशयों को न देखा जाता है और न पहचाना या समझा ही जाता है।इस संसार वृक्ष को काटने का एकमात्र शस्त्र है असंग अर्थात् वैराग्य। भौतिक जगत् जड़? अचेतन है। इसके द्वारा जो अनुभव प्राप्त किया जाता है? वह चैतन्य के सम्बन्ध के कारण ही संभव होता है। जब तक कार के चक्रों का सम्बन्ध मशीन से बना रहता है तब तक उनमें गति रहती है। यदि प्रवाहित होने वाली शक्ति को रोक दिया जाये? तो वे चक्र स्वत ही गतिशून्य स्थिति में आ जायेंगे। इसी प्रकार यदि हम अपना ध्यान शरीर? मन और बुद्धि से निवृत्त करें? तो तादात्म्य के अभाव में विषय? भावनाओं तथा विचारों का ग्रहण स्वत अवरुद्ध हो जायेगा। तादात्म्य की निवृत्ति को ही वैराग्य कहते हैं। यहाँ उसे असंग शस्त्र कहा गया है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन्ा को उपदेश देते हैं कि उसको इस असंगशस्त्र के द्वारा संसारवृक्ष को काटना चाहिये।हमारी वर्तमान स्थिति की दृष्टि से उपर्युक्त अवस्था का अर्थ है शून्य? जहाँ न कोई विषय हैं और न भावनाएं हैं न कोई विचार ही हैं। अत हम ऐसे उपदेश को सहसा स्वीकार नहीं करेंगे। भगवान् हमारी मनोदशा को समझते हुये उसी क्रम में कहते हैं? तत्पश्चात् उस पद का अन्वेषण करना चाहिये? जिसे प्राप्त हुये पुरुष पुन लौटते नहीं हैं।उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन का निष्कर्ष यह निकलता है कि निदिध्यासन के अभ्यास के शान्त क्षणों में साधक को अपना ध्यान जगत् एवं उपाधियों से निवृत्त कर उस ऊर्ध्वमूल परमात्मा के चिन्तन में लगाना चाहिये? जहाँ से इस संसार की पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है।यदि इस उपदेश को केवल यहीं तक छोड़ दिया गया होता? तो अधिक से अधिक वह एक सुन्दर काव्यात्मक कल्पना ही बन कर रह जाता। आध्यात्मिक मूल्यों को अपने व्यावहारिक जीवन में जीने की कला सिखाने वाली निर्देशिका के रूप में? गीता को यह भी बताना आवश्यक था कि किस प्रकार एक साधक इस उपदेश का पालन कर सकता है। इनका एक व्यावहारिक उपाय है? प्रार्थना। जिसका निर्देश इस श्लोक के अन्त में इन शब्दों में किया है? मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ? जहाँ से यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है।यह श्लोक दर्शाता है कि जब हमारी बहिर्मुखी प्रवृत्ति बहुत कुछ मात्रा में क्षीण हो जाती है? तब हमें अपनी बुद्धि को सजगतापूर्वक संसार के आदिस्रोत सच्चिदानन्द परमात्मा में भक्ति और समर्पण के भाव के साथ समाहित करने का प्रयत्न करना चाहिये। इस आदि पुरुष का स्वरूप तथा उसके अनुभव के उपाय को बताना इस अध्याय का विषय है।किन गुणों से सम्पन्न साधक उस पद को प्राप्त होते हैं सुनो
English Translation By Swami Sivananda
15.4 Then That goal should be sought for, whither having gone none returns again. I seek refuge in that Primeval Purusha Whence streamed forth the ancient activity or energy.