Verse: 15,16
मूल श्लोक :
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।15.16।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।15.16।।इस संसारमें क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी) -- ये दो प्रकारके पुरुष हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है।
।।15.16।। इस अध्याय के अब तक किये गये विवेचन से सिद्ध हो जाता है कि जिसे पूर्व के त्रयोदश अध्याय में क्षेत्र कहा गया था वह वस्तुत परमात्मा से भिन्न वस्तु नहीं है।जब वह परमात्मा सूर्य का प्रकाश और ताप? चन्द्रमा का शीतल प्रकाश? पृथ्वी की उर्वरा शक्ति? मनुष्य में ज्ञान? समृति और विस्मृति की क्षमता आदि के रूप में व्यक्त होता है? वस्तुत तब ये सब परमात्मस्वरूप ही सिद्ध होते हैं। परन्तु? इस प्रकार अभिव्यक्त होने में अन्तर केवल इतना होता है कि परमात्मा क्षेत्र के रूप में ऐसा प्रतीत होता है? मानो वह विकारी और विनाशी है। उदाहरणार्थ? स्वर्ण से बने सभी आभूषण स्वर्ण रूप ही होते हैं? परन्तु आभूषणों के रूप में वह स्वर्ण परिच्छिन्न और परिवर्तनशील प्रतीत होता है। इस प्रकार? सम्पूर्ण क्षेत्र को इस श्लोक में क्षर पुरुष कहा गया है।क्षेत्र को जानने वाले क्षेत्रज्ञ आत्मा को यहाँ अक्षर पुरुष कहा गया है। उसका अक्षरत्व इस चर जगत् की अपेक्षा से ही है। जैसे कोई व्यक्ति अपनी पत्नी की दृष्टि से पति और पुत्र की दृष्टि से पिता कहलाता है। इसी प्रकार? शरीर? मन और बुद्धि की परिवर्तनशील क्षर उपाधियों की अपेक्षा से इन सब के ज्ञाता आत्मा को अक्षर पुरुष कहते हैं।पुरुष शब्द का अर्थ है पूर्ण। केवल निरुपाधिक परमात्मा ही पूर्ण है। उपर्युक्त क्षर और अक्षर तत्त्व उसी पूर्ण पुरुष के ही दो व्यक्त रूप होने के कारण उन्हें भी पुरुष की संज्ञा दी गयी है।इस अव्यय और अक्षर आत्मा को वेदान्त में कूटस्थ कहते हैं। कूट का अर्थ है निहाई? जिसके ऊपर स्वर्ण को रखकर एक स्वर्णकार नवीन आकार प्रदान करता है। इस प्रक्रिया में स्वर्ण तो परिवर्तित होता है? परन्तु निहाई अविकारी ही रहती है। इसी प्रकार? उपाधियों के समस्त विकारों में यह आत्मा अविकारी ही रहता है? इसलिये उसे कूटस्थ कहते है।पूर्ण पुरुष? इन क्षर और अक्षर पुरुषों से भिन्न तथा इनके दोषों से असंस्पृष्ट नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव का है। भगवान् कहते है
English Translation By Swami Sivananda
15.16 Two Purushas there are in this world, the perishable and the imperishable. All beings are
the perishable and the Kutastha the unchanging is called the imperishable.